पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२०

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हिंदी भाषा व्यंजन- काफल्य कठ्य तालव्य मूर्धन्य | चय॑ द्वयोष्ठश्य स्पर्श k क, ग ! च ज ट त थ द | प व ध क म छ म अब Ast श सप्राण स्पर्श सध अनुनासिक घर्ष वर्ण ह, (विस०) (जिहा०) पाश्चिक उत्क्षिप्त अर्द्धस्वर (उप०) 4 इ इन सब ध्वनियों के उच्चारण के विषय में अच्छी छानबीन हो चुकी है। (१) सबसे बड़ा प्रमाण कोई तीन हजार वर्ष पूर्व से अवि- च्छिन्न चली पानेवाली वैदिकों और संस्कृतकों की परंपरा है। उनका उच्चारण अधिक भिन्न नहीं हुश्रा है। (२) शिक्षा और मातिशाख्य आदि से भी उस काल के उच्चारण का अच्छा परिचय मिलता है। इसके अतिरिक्त दूसरी निम्नलिखित सामग्री भी बड़ी सहायता करती है। (३) भारतीय नामों और शब्दों का ग्रीक प्रत्यक्षरीकरण (चीनी लेखों से विशेष लाभ नहीं होता पर ईरानी, मोन, ख्मेर, स्यामी, तिब्बती, बर्मी, जावा और मलय, मंगोल और अरबी के प्रत्यक्षरीकरण कमी कभी मध्य- फालीन उच्चारण के निश्चित करने में सहायता देते हैं।) (४) मध्य- कालीन आर्य भाषाओं (अर्थात् पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि) और आधुनिक आर्य देश-भाषाओं (हिंदी, मराठी, बँगला आदि ) के ध्वनि- विकास से भी प्रचुर प्रमाण मिलता है। (५) इसी प्रकार अवेस्ता, प्राचीन फारसी, ग्रीक, गाथिक, लैटिन आदि संस्कृत की सजातीय भारो- पीय भाषाओं की तुलना से भी सहायता मिलती है। (६) और इन सयकी उचित खोज करने के लिये ध्वनि-शिक्षा के सिद्धांत और भाषा के सामान्य-ध्वनि विकास का भी विचार करना पड़ता है।