पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंदी का शास्त्रीय विकास ११६ इस प्रकार विचार करने पर जो प्राचीन उच्चारण की विशेषताएँ ध्यान में आती हैं उनमें से कुछ मुख्य बातें जान लेनी चाहिएँ। (१) सबसे पहली बात यह है कि आज इस्व 'अ' का उच्चारण संवृत होता है। उसका यही उच्चारण पाणिनि और प्रातिशाख्यों के समय में भी होता था पर वैदिक काल के प्रारंभ में श्रचिवृत उच्चरित होता था। वह विवृत श्रा का हस्व रूप था। (२) इसी प्रकार ऋ और ल का उच्चारण भी श्राज से भिन्न होता था। श्राज ऋ का उच्चारण रिअथवा रु के समान किया जाता है पर प्राचीन काल में ऋ स्वर थी-श्राक्षरिक र थी। ऋक्प्रातिशाख्य में लिखा है कि ऋ के मध्य मेंर का अंश मिलता है (ऋ +र+श्र)। इस प्रकार वैदिक ऋ प्राचीन ईरानी (अर्थात् अवेस्ता) की ( arar) ध्वनि की घरावरी पर रखी जा सकती है। (३)ल का प्रयोग तो वेद में भी कम होता है और पीछे तो सर्वथा लुप्त ही हो गया। उसका उच्चारण बहुत कुछ अँगरेजी के little शब्द में उच्चरित श्राक्षरिकल के समान होता था। (४) संध्य. क्षर प, श्री का उच्चारण जिस प्रकार अाज दीर्घ समानातरों के समान होता है वैसा ही संहिता-काल में भी होता था क्योंकि ए और श्री के परे श्र का अभिनिधान हो जाता था। यदि ए, श्री संध्यवरवत् उच्चरित होते तो उनका संधि में श्रय और अव रूप ही होता। पर अति प्राचीन काल में वैदिक ए, ओ संध्यक्षर थे क्योंकि संधि में वे अ+ और अ+ उ से उत्पन्न होते हैं। श्रोत और श्रवः, ऐति और भयन जैसे प्रयोगों में भी यह संध्यतरत्व स्पष्ट देख पड़ता है। अतः वैदिक ए, श्रो उच्चा. रण में तो भारोपीय मूलभापा के समानाक्षर से प्रतीत होते हैं पर वास्तव में वे अइ, उ संध्यतरों के विकसित रूप हैं। (५) दीर्घ संध्यवर ऐ, श्री का प्राचीनतम उच्चारण तो प्राइ, श्राउ है पर प्रातिशास्यों के चैदिक काल में ही उनका उच्चारण श्रइ, अउ होने लगा.था और यही उच्चारण आज तक प्रचलित है। (६) अवेस्ता के समान वैदिक उच्चारण की एक विशेपता स्वर-भक्ति भी है। जब किसी व्यंजन का रेफ अथवा अनुनासिक से संयोग होता है तब प्रायः एक लघु स्वर दोनों व्यंजनों के बीच में सुन पड़ता है। इस स्वर को स्वरभक्ति कहते हैं। जैसे इंद्र का इंदर (Indara), ग्ना का गना। इस स्वर-भक्ति की मात्रा, अथवा ३ मानी गई है पर यह पूर्ण स्वर नहीं है। (७) इसके अति. रिक्त वैदिक उच्चारण में भी दो स्वरों के बीच में उसी प्रकार विवृत्ति पाई जाती थी जिस प्रकार पीछे प्रारुत में और आज देश-भाषाओं में मिलती है, परवर्ती लौकिक संस्कृत में विवृत्ति नहीं पाई जाती पर वैदिक