पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२२

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१२० हिंदी भाषा में तितउ (चलनी) के समान शब्द तो थे ही; 'ज्येष्ठ' के समान शब्दों में भी ज्य+ठ श्रीरका उच्चारण पृथक् पृथक होता था। व्यंजनों का उच्चारण श्राज की हिंदी में भी बहुत कुछ वैसा ही है। वैदिक तालव्य-स्पी में सोमता कुछ कम थी पर पीछे सोम श्रुति इतनी पढ़ गई है कि तालव्य वर्ग को घर्प-स्पर्श मानना ही उचित जान पड़ा। तालव्य श पहले तो कंठ श्रीर तालु के मध्य में उच्चरित होता था इसी से कभी फ और कभी च के स्थान में धाया करता था पर पीछे से तालुके अधिक भागे उच्चरित होने लगा, इसी से चैदिक में श श्रीरस एक दूसरे के स्थान में भी आने-जाने लगे थे। मुर्धन्य धर्ण तालु के मूर्धा से अर्थात् सबसे ऊँचे स्थान से उच्च- रित होते थे। इसी से मुर्धन्य प का प्राचीन उच्चारण जिह्वामूलीय x के समान माना जाता है। इसी कारण मध्यकाल में पके स्थान में उच्चारण मिलता है। उस प्राचीन मूर्धन्य उच्चारण से मिलता- जुलता ख होने से वही मध्यकाल से लेकर आज तक पका समीपी समझा जाता है। संस्कृत का स्तुपा, स्लाव्ह का स्मुखा (Snuxa), पप्तो और पत्तो श्रादि की तुलना से भीप के प्राचीन उच्चारण की यही फल्पना पुष्ट होती है। ळ, ह ऋग्वेद की किसी विभाषा में प्रयुक्त होते थे इसी से पाली से होते हुए अपनश और हिंदी मराठी आदि में तो श्रा गए परचे साहित्यिक संस्कृत, प्राकृत आदि से बाहर ही रहे। व्योष्ठय ध्वनियों की अर्थात् प, फ, य आदि की कोई विशेषता उल्लेखनीय नहीं है पर उपध्मानीय फ (F) के उच्चारण पर ध्यान देना चाहिए। दीपक बुझाने में मुख से दोनों होठों के यीच से जो धौंकनी की सी चनि निकलती है यही उपध्मानीय ध्वनि है। यह उत्तर भारत की श्राधुनिक आर्य भापानों में साधारण ध्वनि हो गई है। प्राचीन धेदिक काल में पके पूर्व में जो अघोप ह रहता था यह उपध्मानीय ध्वनि सी ) की प्रतिनिधि पी। जैसे-ल सुनः। जिहामूलीय और उपम्मानीय दोनों को ही संस्कृत में इस चिह से प्रकट करते हैं। और उपम्मानीय की भांति जितामूलीय भी विसर्जनीय का एक भेद है। जो विसर्ग 'फ' के पूर्व में आये यह जिह्वामूलीय है, जैसे-ततः किम् में पिसर्ग जिल्लामूलीय है। इसका उच्चारण जर्मन भाषा के ach में ch के रूप में मिलता है। अर्द्धस्वर, उ (य,घ) वैदिक काल में स्वरवत् फाम में आते ये पर पाणिनि के काल में श्राफर उ सोम धकार हो गया। उसके दंतोष्ठय उच्चारण का वर्णन पाणिनीय व्याकरण में मिलता है पर घ फा