पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१२७

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हिंदी का शास्त्रीय विकास १२५ आधुनिक हिंदी का काल पाता है। उसमें स्वर तो वे ही पुरानी हिंदी के १२ स्वर हैं, पर व्यंजनों में वृद्धि हुई है। क, ग, स, ज़, फ़ के अति- रिक्त श्राँ तथा श श्रादि अनेक ध्वनियां तत्सम शब्दों में प्रयुक्त होने लगी है। केवल ऋ, प, म ऐसे व्यंजन हैं जो नागरी लिपि में हैं और संस्कृत तत्सम शब्दों में आते भी हैं पर वे हिंदी में शुद्ध उच्चरित नहीं होते; अतः उनका हिंदी में प्रभाव ही मानना चाहिए। इन हिंदी ध्वनियों का विवेचन पीछे हो चुका है। हिंदी के ध्वनि-विकारों का ऐतिहासिक अध्ययन करने के लिये उसकी पूर्ववर्ती सभी आर्य भाषाओं का अध्ययन करना श्रावश्यक है। अभी जय तक इन सब भाषाओं का इस प्रकार का अध्ययन नहीं हुआ है तब तक यह किया जाता है कि संस्कृत की ध्वनियों से हिंदी की ध्वनियों की तुलना करके एक साधारण इतिहास बना लिया जाता है; क्योंकि संस्कृत प्राचीन काल की और हिंदी आधुनिक काल की प्रति- निधि है। हिंदी-ध्वनियों का विचार तो तभी पूर्ण हो सकेगा जव मध्यकालीन भाषाओं का भी सुंदर अध्ययन हो जाय ।* रूप-विचार जिस प्रकार हिंदी के ध्वनि-विचार का दिग्दर्शन मात्र यहाँ कराया गया है उसी प्रकार रूप-विचार का वर्णन भी हम संक्षेप में ही दे सकेंगे। (हिंदी विभक्ति-प्रधान भापा है अतः हिंदी का रूप-विचार विभ- क्तियों का विवेचन मात्र होगा। विभक्ति का विचार हिंदी की संशा. सर्वनाम और क्रिया में ही मुल्यतः होता है अतः इन्हीं तीनों का हम श्रागे विचार करेंगे। हिंदी के विद्वानों में विभक्तियों के संबंध में बहुत मतभेद है। कोई इन्हें प्रत्यय मानते हैं और इसी आधार पर इन्हें मूल शब्दों के साथ र मिलाकर लिखते हैं। परंतु दूसरों का मत इसके " विरुद्ध है। उनका कहना है कि विभक्तियाँ स्वतंत्र शब्दों से उत्पन्न हुई हैं। जिस रूप में वे इस समय वर्तमान है, वह उनका संक्षिप्त रूप है। कुछ भी हो, हम यहाँ पर यह दिखलायेंगे कि विभक्तियों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई है। . . * हिंदी के रूप-विकारों का थोड़ा और परिचय प्राप्त करने के लिये भाषा-रहस्य देखिए।