पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१३१

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हिंदी का शास्त्रीय विकास १२६ प्रत्यय यनते हैं। पर इन्हें प्रत्यय कहना उचित नहीं जान पड़ता। प्रत्यय जिस प्रकृति से लाया जाता है, वह निर्विभक्तिक होती है, उससे विभक्ति का लोप हो जाता है। परंतु यहाँ 'केरकं' के पहले 'फस्स' सविमक्तिक है। हेमचंद्र ने 'कर' प्रत्यय (२०१४७) और संबंधिवाचक 'केर' शब्द (४४२२) दोनों का उल्लेख किया है। तुम्हकेरो, अम्हकेरो, तुज्म यप्पकरको (मृच्छक०) श्रादि में प्रयुक्त 'केर' को प्रत्यय और 'कस्स केरकं' के 'केर' को स्वतंत्र पद् समझना चाहिए। हिंदी 'किसका' ठीक 'फस्स केरकं' से मिलता है। किस, 'कस्स' ही का विकार है। अतः 'किसका' में दुहरी विभक्ति की कल्पना करके चांकना वृथा है। (घ) प्राकृत इदमर्थ के ध, इक्क, एच्चय आदि प्रत्ययों से ही रूपांतरित होकर आधुनिक हिंदी के 'का, के, की' प्रत्यय हुए हैं। (ङ) सर्वनामों के 'रा, रे, री' प्रत्यय केरा, केरो श्रादि प्रत्ययों के श्राद्य 'क' का लोप हो जाने से बने हैं। यही भिन्न भिन्न मत हैं। कुछ कुछ तथ्यांश प्रत्येक मत में जान पड़ता है, परंतु प्राकृत इदमर्थवाची केरनो, केरिश्र, केरकं आदि से हिंदी की संबंध कारक की विभक्ति का निकलना [ देखो ऊपर (ग)] अधिक युक्तिसंगत जान पड़ता है। इस कृत का वोलचाल की प्राकृत में, जिसका स्वाभाविक रूप भास के नाटकों में रक्षित है, 'केरो' होता है। मृच्छकटिक की पंडिताऊ प्राकृत में यही 'केरकं' के रूप में मिलता है। शेमचंद्र में यही 'केर' के रूप में मिलता है (दे०-संबंधिनि केरतणा- हेमचंद्र) और उससे पहले धनपाल में यही 'केरा' 'केरी' के रूप में मिलता है। पृथ्वीराजरासो में भी यह 'केरो' 'केरी' है। दौरे गज अंध चहुआन केरो। भिदी दृष्टि से दृष्टि चहुबान केरी। अक्षरों तथा भापायों के क्रमशः विकार और लोप होने से इससे अवधी के "केरा, केरी, केर, के, क" रूपहुए जैसे, यह सब समुद बुंद जेहि केरा। जायसी। औ जमकात फिरै जम केरी।-जायसी। । हैं। पंडितन केर पछलगा।-जायसी। राम ते अधिक राम कर दासा ।-तुलसी। धनपति उहै जेहि क संसारा।-तुलसी। पश्चिमी की 'का-के-की' विभक्तियाँ प्राकृत अपभ्रंशों से उतना मेल नहीं खाती जितनी पूर्वी की देख पड़ती हैं। फिर भी 'कर' के 'र' के लोप हो जाने से 'के' का प्राविर्भाव सुगमता से हो जाता है, और