पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१३२

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१३० हिंदी भाषा जिस प्रकार पूर्वी का 'क' निकलता है उसी प्रकार खड़ी वाली का 'का, के, की', ब्रज का 'को' और कनौजिया का 'को' भी निकल सकता है। पूर्व और पश्चिम की उच्चारण-भिन्नता भी इस भेद का कारण हो सकती है। यह तो स्पष्ट ही है कि पश्चिमी नोकार प्रियता रासो के 'केरो' और पूर्वी प्राकार-प्रियता जायसी के 'केरा' के लिये उत्तरदायी है। डाक्टर भंडारकर ने 'कीय' से 'कर' के निकालने में रूपयाधा मानी है इसलिये वे 'कार्य' से इन रूपों को निकालते हैं, पर यदि पिचार किया जाय तो इस व्युत्पत्ति में भी याधा है। संबंध भूत वस्तु है और कार्य भविष्य। संबंध हो चुका होता है और कार्य होनेवाला होता है। यदि 'कीय' से 'केर' की उत्पत्ति में रूप याधा थी तो 'कार्य में अर्थ-बाधा उपस्थित होती है। पर जैसा कि ऊपर कहा गया है 'कृत' को मूल मानने से कोई भी बाधा उपस्थित नहीं होती। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि इस प्रकार का अर्थ विपर्यय संस्कृत में भी बहुधा हुश्रा है, अतएव यहां भी उसके मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ये विद्वान् पूर्वी 'केरो, केर, कर, क' का 'कृत' से 'केरी, करी होते हुए तथा पश्चिमी 'को, को, का, के, कु' को 'कृत' से 'को, किनी, किरी' होते हुए मानते हैं। यह भी हो सकता है और वह भी हो सकता है। पर जैसा कि हम कह चुके हैं संगति 'कृत' से 'केरनो, फेरिन, केरक' प्रादि होते हुए इन रूपों को निकालने में ही बैठती है। दूसरे विद्वानों का कहना है कि संबंध कारक की विभक्तियों में लिंग-यचन के अनुसार रूपांतर होने के कारण यह स्पष्ट है कि ये विभ- क्तियाँ वास्तव में विशेषण थीं और प्रारंभ में इनमें कारकों के कारण विकार होता था। अतएव 'का' विभक्ति का पूर्व रूप भी विशेषण का सा ही रहा होगा। संस्कृत कृ धातु के कृदंत रूप कृतः का अपभ्रंश में केरा, किरो, कियो, को और कयो होता है। इन अपभ्रंश रूपों को हम दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं- (१) को, किनी, किरो। (२) केरो, करो। प्रथम श्रेणी के रूप स्पष्टतः संस्कृत के कृतः से निकले हैं। इसी का शौरसेनी अपभ्रंश रूप 'किरो' है। द्वितीय श्रेणी में फेरो का प्रयोग तो अपभ्रंश में मिलता है, पर करो का नहीं मिलता। श्राधुनिक भाषाओं में इसके मिलने से यह मानना पड़ता है कि या तो इस रूप का प्रयोग था, अथवा यह करो से विकृत होकर बता है। वोम्स और हालेली का. मत है कि संस्कृत के कृतः से प्राकृत में करिश्रो हुआ जिससे केरो बना।