पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१४२

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१४२ हिंदी भाषा . में ठा या था रूप हो जाता है। हमारी हिंदी में भी 'स्थान' का 'थान' रूप बनता है। दूसरे लोग कहते हैं कि यह अस् धातु के 'स्थ' रूप से बना है। हमें पहला मत ठीक जान पड़ता है। 'स्था' धातु का सामान्य, भूत (लुङ्) में "श्रस्थात्" रूप होता है। उससे उसी काल का 'था' रूप पड़ी सुगमता से व्युत्पन्न हो सकता है। दूसरा मत इसलिये ठीक नहीं है कि "स्थ" वर्तमान काल के मध्यम पुरुष का बहुवचन है । उससे भूतकालिक एकवचन 'था' की उत्पत्ति मानना द्रविड़ प्राणायाम करना है। (३)गा-संस्कृत के गम् धातु का कृदंत रूप गतः होता है । इसका प्राकृत गरओ या गन्न होता है। इसी ग+ गा से भविष्यत् काल का चिह्न 'गा' बनता है। 'चलेगा' में 'गा' की क्या करतूत है, सो देखिए । 'चलिप्यति' चलिस्सदि > चलिस्सइ > चलिसह > चलि- हइ> चलिहि > चलिइ > चली (भोजपुरिया) रूप भी बनता है और चलि > चले भी बनता है। यह पिछला 'चले' यद्यपि स्वयं भवि- प्यत् काल का बोधक है, तथापिइतना घिस गया है कि पहचाना तक नहीं जाता। अतः उसमें 'गा' जोड़कर उसे और व्यक्त बनाते हैं । इस अवस्था में इसका अक्षरार्थ यही हो सकता है कि 'चलने के निमित्त गया।' प्रथ-विचार यदि हिंदी शब्दों के अर्थों का इतिहास देखा जाय तो बड़ी मनो- रंजक कहानी प्रस्तुत हो सकती है। आज भी न जाने कितने शब्द भारो- पीय तथा अति प्राचीन वैदिक काल का स्मरण करा देते हैं, पर श्रव उनके अथों में बड़ा अंतर पा गया है। एक धर्म शब्द ही लिया जाय तो वह वेद से लेकर आज तक अनेक अर्थों में प्रयुक्त हो चुका है और वर्तमान हिंदी में उसका अर्थ रह गया है मजहब, रिलीजन (religion) अथवा संप्रदाय। - यदि समास और धाक्य-रचना श्रादि का विकास देखा जाय तो संस्कृत के काल से लेकर श्राज तक घड़े परिवर्तन हुए हैं। हिंदी के शब्द-मांडार पर ही नहीं समास-रचना, वाक्य-रचना, श्रादि पर भी विदेशी प्रभाव पड़ा है। अतः यहाँ हम हिंदी अर्थ-विचार का उचित विवेचन न कर सकने पर भी विद्यार्थी का ध्यान उस अंग की ओर खींचना श्रावश्यक समझते हैं क्योंकि भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन पूर्ण और सांग पनाने के लिये अर्थ विचार भी श्रावश्यक होता है। जैसा हम प्रारंभ में कह चुके हैं, हमारे इस अध्याय के तीन भाग हो सकते है। पहले भाग में हमने ध्वनि-शिक्षा के आधार पर ध्वनियों