पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१४३

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• हिंदी का शास्त्रीय विकास . . १४३ का इतिहास प्रस्तुत किया है। दूसरे भाग में व्याकरण में दिए हुए रूपों के बांधार पर रूपों का विचार हुआ है। अव इस तीसरे भाग में शब्द- कोश के आधार पर शब्दों के अर्थों का वर्गीकरण तथा विवेचन होगा। इस प्रकार पहले हम ध्वनियों का विचार करते हैं, फिर चे ध्वनियां जिन रूपों में प्रयुक्त होती हैं उन पर हम विचार करते हैं और अंत में उन निप्पन्न और प्रयुक्त शब्दों में भरे हुए श्रों का विचार किया जाता है। ध्वनियों की गणना होती है, रूपों का भी व्याकरण में प्रायः परिगणन हो जाता है पर शब्द-मांडार तो यड़ा विशाल और वास्तव में गणना- तीत होता है। भांडार न कहकर उसे तो सागर कहना चाहिए। और यदि शब्दसागर के सभी शब्दों का वर्गीकरण, विवेचन और व्युत्पत्ति देने लगें तब तो न जाने कितने हजार पृष्ठ लिखे जाने पर भी प्रकरण पूरा न होगा। हिंदी भाषा का इस प्रकार का अर्थ-विचार अपेक्षित है। तथापि अभी यहां पर तो हम इने गिने उदाहरण लेकर अपना काम चलायेंगे। अर्थ के विचार से शब्दों के तीन प्रकार होते हैं-वाचक, लक्षक, तथा व्यंजक । मुख्य और प्रसिद्ध अर्थ को सीधे सीधे कहनेवाला _ वाचक कहलाता है। लक्षण अथवा लाक्षणिक शब्द कतान मद शब्द घात को लखा भर देता है, अभिप्रेत अर्थ को लक्षित मान करता है; और व्यंजक शब्द (मुख्य अथवा लक्ष्य अर्थ के अतिरिक्त ) एक तीसरी बात की व्यंजना करता है, उससे प्रकरण, देश, काल श्रादि के अनुसार एक अनोखी ध्वनि निकलती है। उदा- हरणार्थ यह मेरा घर है-इस वाक्य में घर शब्द वाचक है, अपने प्रसिद्ध' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, पर सारा घर खेल देखने गया है-इस वाक्य में 'घर' उसमें रहनेवालों का लक्षक है अर्थात् यहाँ घर शब्द लाक्षणिक है। और यदि कोई अपने आफिसर मित्र से बात करते करते कह ' उठता है, 'यह घर है, खुलकर बातें करो' तय 'घर' कहने से यह ध्वनि निकलती है कि यह ऑफिस नहीं है। यहाँ घर शब्द व्यंजक है। इन सभी प्रकार के शब्दों का अपने अपने अर्थ से एक संबंध रहता है। उसी संबंध के बल से प्रत्येक शब्द अपने अपने अर्थ का बोध कराता है। बिना संबंध का शब्द अर्थहीन शक्ति शाक होता है-उसमें किसी भी अर्थ के बोध कराने की शक्ति नहीं रहती। संबंध उसे अर्थवान् बनाता है, उसमें शक्ति का संचार करता है। संबंध की शक्ति से ही शब्द इस अर्थ-मय जगत् का शासन करता है, लोकेच्छा का संकेत पाकर चाहे जिस अर्थ को अपना