पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१४७

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हिंदी का शास्त्रीय विकास १४७ जाता है। इस दूसरे वर्गीकरण के अनुसार मुख्य तीन भेद होते हैं- तत्सम, तद्भव और देशी। इनका विवेचन वास्तव में भापा के विकास का सच्चा रूप सामने ला देता है। यदि पहले वर्गीकरण का श्राधार ऐतिहासिक व्याकरण है तो दूसरे का श्राधार तुलना और इतिहास दोनों हैं। इस वर्गीकरण के महत्त्व का विचार करके ही हमने इसके लिये एक अध्याय अलग रखा है। उसका नाम है , विदेशी प्रभाव' । प्रारंभिक इतिहास के विचार से उसका स्थान पहले रखा गया है पर हिंदी के अर्थ-विकास के विचार से विदेशी प्रभाववाला अध्याय इसी अध्याय में श्रा जाना चाहिए। इस दूसरे वर्गीकरण को आधार बनाकर बड़ा सुदर विवेचन तैयार हो सकता है। जैसे कुछ शब्द तत्सम रूप में आज भी विद्यमान हैं पर उनके अर्थ सर्वथा भिन्न हो गए हैं। उदाहरण के लिये प्राचीन काल में धर्म का अर्थ होता था अपना कर्त्तव्य श्रीर श्राज की हिंदी में उसका अर्थ है मजह्य अथवा संप्रदाय। प्राचीन काल के आर्य (श्रेष्ठ के अर्थ में), मृग ( पशु मान के श्रथ में), व्यथा (कांपने के अर्थ में) आदि शब्द आज भी तत्सम रूप में प्रयुक्त होते हैं पर उनके अर्थ बिलकुल उलट गए हैं। सहयोग और असहयोग शब्द भी पुराने हैं पर अब उनमें राजनीतिक अर्थ भर गया है। इसी प्रकार तद्भव शब्दों में भी अर्थ-विकार देख पड़ता है। 'बाई' शब्द संस्कृत के 'यती' और 'माता' से अलग अलग बना है पर अव वह मा, यहिन, स्त्री, भद्र स्त्री, अध्या- पिका, गणिका श्रादि अनेक अर्थो में आता है। अंत में देशी और विदेशी शब्दों का तो यहाँ उल्लेख मात्र पर्याप्त है। देशी शब्दों की खोज से बड़े बड़े रहस्यों का पता लग सकता है और विदेशी प्रभाव की चर्चा तो हम अभी अभी कर चुके हैं। तो भी किस प्रकार विदेशी भाव और अर्थ हिंदी पर प्रभाव डाल रहे हैं, इसका एक मनोरंजक उदाहरण हम अवश्य देंगे। संस्कृत में होता है श्रमाच- निवृत्ति प्रभाव को दूर करना और अँगरेजी में चलता है उस अभाव की पूर्ति करना। संस्कृत के अर्थानुसार देखा जाय तो अभावपूर्ति का अर्थ होगा श्रभाव को और भी बढ़ाना पर हिंदीवालों ने अँगरेजी भाव लेकर संस्कृत के तत्सम शब्द में भर दिया है। इस प्रकार के विदेशी अर्थवाले संस्कृत शब्द अाजकल की छायावादी कविता में बहुत अधिक

  • दो शब्दों के तद्भव रूप हिंदी में एक से मिलते हैं। यह कोई श्राश्नर्य

की बात नहीं है। जैसे कर्म = काम और कामः = काम ।