पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१४८

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हिंदी भाषा हैं। गद्य में भी उनकी कमी नहीं है। समाचारपनवाले नित्य ही संस्कृत की खाल श्रोढ़ाकर अँगरेजी शब्दों की प्राणप्रतिष्ठा किया करते हैं। भापा फा मर्म और सचा विकास देखने के लिये इन सभी बातों का विचार करना पड़ता है। और इस समझने की पद्धति का नाम है व्युत्पत्ति । व्युत्पत्ति करने के लिये ध्वनिविचार, रूपविचार और अर्थ- विचार-तीनों का ही शान होना चाहिए। इस सयका तात्पर्य यह है कि यह पूरा अध्याय व्युत्पत्ति का ही अध्याय है। सच पूछा जाय तो हमारा पूरा विवेचन ही दिग्दर्शन मात्र है। हमारा लक्ष्य केवल इतना है कि विद्यार्थी इस इतिहास को देखकर हिंदी भापा का वैज्ञानिक इतिहास पढने और सोजने में प्रवृत्त हो। नहीं तो इतना लिख चुकने पर भी हमें यह प्रकरण अधूरा और अपूर्ण लग रहा है; क्योंकि हिंदी के लिंग, वचन, संरयावाचक विशेपण, संयुक क्रिया, शब्द शक्ति श्रादि महत्त्वपूर्ण विपयों पर हम कुछ भी नहीं लिख पाए हैं। अतः हमारी अध्यापकों और विद्यार्थियों से प्रार्थना है कि वे इस प्रकरण को यथासंभव पूर्ण बनाकर पढ़े। भारतवर्ष की भाषाओं के इतिहास की अभी बहुत कम सोज हुई है; पर इसके लिये सामग्री इतनी अधिक उपस्थित है कि एक नहीं सैकड़ों विद्वानों का वर्षों तक सब समय इसके रहस्यों के उद्घाटन में लग सकता है। जिस प्रकार भारतीय आर्य जाति प्राचीनता के भन्य भाव से गौरवपूर्ण हो रही है और उसका अभी तक कोई श्रृंखलाबद्ध पूर्ण इतिहास नहीं उपस्थित हो सका है, उसी प्रकार उसकी भिन्न भिन्न भाषाओं की प्रादि से लेकर अब तक की सव ऐतिहासिक भंसलाओं का भी पता नहीं लगा है। आशा है, हिंदी भापा के मुख्य मुख्य तथ्यों का यह परिचय इस सोज में प्रोत्साहन देने और इसकी सोज का भावी मार्ग सुगम यनाने में सहायक होगा। भारतीय विद्वान् हो अपनी भाषाओं के तथ्यों और रहस्यों को भली भांति समझ सकते हैं। अतएव उन्हीं को इस काम में दत्तचित्त होकर अपने गौरव की रक्षा करना और अपनी भाषाओं का इतिहास स्वयं उपस्थित करना चाहिए । उत त्वः पश्यन ददर्श वाचम् उत त्व. शृण्वन्न शृणोत्येनाम् । उतो चस्मै तन्व विससे जायेव पत्य उशती सुवासा ।। अन्य जन वाणी को देखते हुए भी नहीं देखता, सुनते हुए भी नहीं सुनता। पर वाणी के मर्मश वैयाकरण को वाणी सुवसना नव-यधू की भांति अपने अंग प्रत्यंग दिखला देती है।