पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१५०

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पहला अध्याय विषय-प्रवेश . मनुष्य मात्र की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह अपने भावों तथा विचारों को दूसरों पर प्रकट करे और स्वयं पड़ी उत्सुकता मोनियम से दूसरे के भावों और विचारों को सुने और समझे। वह अपनी कल्पना की सहायता से ईश्वर, मनात्तया जीव तथा जगत के विविध विषयों के संबंध में कितनी ही यातें सोचता है तथा वाणी के द्वारा उन्हें व्यक्त करने की चेष्टा करता है। वाणी का वरदान उसे चिर काल से प्राप्त है और उसका उपयोग भी वह चिरकाल से फरता आ रहा है। प्रेिम, दया, करणा, द्वेप, घृणा तथा क्रोध आदि मानसिक वृत्तियों का अभिव्यं- जन तो मानव समाज अत्यंत प्राचीन काल से करता ही है, साथ ही प्रकृति के नाना रूपों से उद्भूत अपने मनोविकारों तथा जीवन की अन्यान्य परिस्थितियों के संबंध में अपने अनुभवों को व्यक्त करने में भी उसे एक प्रकार का संतोष, तृप्ति अथवा आनंद प्राप्त होता है। यह सत्य है कि सय मनुप्यों में न तो अभिव्यंजन की शक्ति एक-सी होती है और न सव मनुप्यों के अनुभवों को मात्रा तथा विचारों की गंभीरता ही एक-सी होती है, परंतु साधारणतः यह प्रवृत्ति प्रत्येक मनुप्य में पाई जाती है। मनुप्य की इसी प्रवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञान और शक्ति के उस भांडार का सृजन, संचय और संवर्द्धन होता है जिसे हम साहित्य कहते हैं। साहित्य के मूल में स्थित इन मनोवृत्तियों के अतिरिक्त एक दूसरी प्रवृत्ति भी है जो सभ्य मानव-समाज में सर्वत्र पाई जाती है और जिससे साहित्य में एक अलौकिक चमत्कार तथा मनोहारिता पा जाती है। इसे हम सौंदर्य-प्रियता की भावना कह सकते हैं। सौंदर्य-नियता की ही सहायता से मनुप्य अपने उद्गारों में "रस" भर देता है जिससे एक प्रकार के अलौकिक और अनिर्वचनीय आनंद की उपलब्धि होती है और जिसे साहित्यकारों ने "ब्रह्मानंद-सहोदर" की उपाधि दी है। सांदर्य- मियता की भावना ही शुद्ध साहित्य को एक ओर तो जटिल और नीरस दार्शनिक तत्त्वों से अलग करती तथा दूसरी ओर उसे मानव मात्र के