पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ . हिंदी साहित्य लिये नाकर्षक बना देती है। जैसे सब मनुष्यों में मनोवृत्तियों की मात्रा एक सी नहीं होती वैसे ही सौंदर्य-प्रियता की भावना उनमें समान रूप से विकसित नहीं होती; सभ्यता तथा संस्कृति के अनुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों में उसके भिन्न भिन्न स्वरूप हो जाते हैं। परंतु इसका यह श्राशय नहीं कि हम प्रयत्न करके किसी देश अथवा काल के साहित्य में उपर्युक्त भावना को न्यूनता अथवा अधिकता का पता नहीं लगा सकते या उसके विभिन्न स्वरूपों को समझ नहीं सकते। इस प्रकार एक ओर तो हम अपने भावों, विचारों, आकांक्षाओं तथा कल्पनाओं का अभिव्यंजन करते हैं और दूसरी और अपने सौंदर्य- ___ ज्ञान के सहारे उन्हें सुंदरतम बनाते तथा उनमें मावपद तथा कलापक्ष एक अद्भुत नाकर्पण का प्राविर्भाव करते हैं। इन्हीं दो मूल तत्त्वों के आधार पर साहित्य के दो पक्ष हो जाते हैं जिन्हें हम भावपत तथा कलापक्ष कहते हैं। यद्यपि साहित्य के इन दोनों पक्षों में बड़ा घनिष्ठ संबंध है और दोनों के समु- चित संयोग और सामंजस्य से ही साहित्य को स्थायित्व मिलता तथा उसका सचा स्वरूप उपस्थित होता है, तथापि साधारण विवेचन के लिये ये दोनों पक्ष अलग अलग माने जा सकते हैं और इन पर भिन्न मिन्न दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। साहित्य के विकास के साथ उसके दोनों पक्षों का विकास भी होता जाता है, पर उनमें समन्वय नहीं बना रहता। तात्पर्य यह कि दोनों पक्षों का समान रूप से विकास होना आवश्यक नहीं है। किसी युग में भावपक्ष की प्रधानता बार कलापक्ष की न्यूनता तथा किसी दूसरे युग में इसके विपरीत परिस्थिति हो जाती है। इसलिये साहित्य के इन दोनों अंगों का अलग अलग विवेचन करना केवल श्रावश्यक ही नहीं, वरन् कभी कभी अनिवार्य भी हो जाता है। साहित्य के इन दोनों अंगों में से उसके भावात्मक अंग की अपेक्षाकृत प्रधानता मानी जाती है और फलापक्ष को गौण स्थान दिया जाता है। सच तो यह है कि साहित्य में भावपक्ष भावपक्ष ही सब कुछ है, कलापक्ष उसका सहायक तथा उत्कर्षवर्धक मात्र है। साथ ही भावपक्ष पर विचार करना भी अपेक्षाकृत जटिल तथा दुरूह है; क्योंकि मनुप्य की मनो- वृत्तियाँ जटिल तथा दुरुह हुआ करती है, उनमें श्खला तथा नियम ढूँढ़ निकालना सरल काम नहीं होता। मनुष्य के भाव और विचार तथा उसकी कल्पनाएँ भी बड़ी विचित्र तथा अनोखी हुआ करती हैं।