पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१५५

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हिंदी साहित्य साधारण दृष्टि से विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन पर भारतीय आध्यात्मिक तथा लौकिक विचारों की गहरी छाप है। हम लोग प्राचीन काल से श्रादर्शवादी रहे हैं, हमें वर्तमान स्थिति की इतनी चिंता कभी नहीं हुई जितनी भविप्य की चिंता रही है। यही कारण है कि हमारे साहित्य तथा अन्य ललित कलाओं में आदर्शवादिता की. प्रचुरता देख पड़ती है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि , साहित्य और फलाएँ हमारे भावों तथा विचारों का प्रतिबिंब मात्र है। सारांश यह कि जहाँ संसार की उन्नत जातियों की कुछ अपनी विशेषताएँ होती है, यहाँ उनके साहित्य आदि पर भी उन विशेषताओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। इन्हीं साहित्यिक विशेषताओं के कारण “जातीय साहित्य" का व्यक्तित्व निर्धारित होता है। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या जातिगत विशेषताएँ सदा सर्वदा पुरातन श्राधारों पर ही स्थित रहती हैं अथवा समय और स्थिति के अनुसार श्रादों में परिवर्तन के साथ उनमें भी परिवर्तन हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समय, संसर्ग और स्थिति के प्रभाव से जातीय थादर्शो में परिवर्तन हो जाता है, पर उनके पुरातन श्राधारों का सर्वथा लोप नहीं होता। इन्हीं पुरातन आदर्शों की नींव पर नए श्रादर्शो की उद्भावना होती है। जहाँ कारणविशेप से ऐसा नहीं होने पाता वहाँ के नए आदर्शों के स्थायित्व में बहुत कुछ कमी हो जाती है। जातीयता के स्थायित्व के लिये श्रादर्शी की धारा का अक्षुण्ण रहना श्रावश्यक है। हाँ, समय समय पर उस धारा की अंगपुष्टि के लिये नए श्रादर्शरूपी स्रोतों का उसमें मिलना आवश्यक और हितकर होता है। ठीक यही स्थिति साहित्यरूपी सरिता की भी होती है। जिस प्रकार किसी जाति के परंपरागत विचार तथा स्थिर दार्शनिक सिद्धांत सहसा लुप्त नहीं हो सकते उसी प्रकार जातीय साहित्य तथा कलाएँ भी अपनी जातीयता का लोप नहीं कर सकती। जातीयता का लोप फलानों के विकास में बाधाएँ उपस्थित करता है। अतः उसका परित्याग अथवा उसकी अवहेलना किसी अवस्था में उचित नहीं। प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार फैजी रूमीन ने, अभी थोड़े दिन हुए, कहा है- '. "भारतीय कला तो अव नष्ट हो गई है। न तो उसको ठीक ठीक समझनेवाले हैं और न उसका यथोचित सम्मान करनेवाले हैं। हमारे कलाकार ऐसी रचनाएँ करते हैं जिनमें मौलिकता होती ही नहीं। इसका कारण यह है कि ये कलाकार सच्चे भारतीय भावों को भूलकर