पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१५७

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हिंदी साहित्य ओर रही है। साहित्यिक समन्वय, से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुःख, उत्थान-पतन, हर्ष-विपाद श्रादि विरोधी तथा विप- रीत भावों के समीकरण तथा एक अलौकिक आनंद में उनके विलीन होने से है। साहित्य के किसी अंग को लेकर देखिए, सर्वत्र यहीं समन्वय दिखाई देगा। भारतीय नाटकों में सुख और दुःख के प्रयल घात-प्रतिघात दिखाए गए हैं पर सयका अवसान आनंद में ही किया गया है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीयों का ध्येय सदा से जीवन का श्रादर्श स्वरूप उपस्थित करके उसका उत्कर्ष बढाने और उसे उन्नत बनाने का रहा है। वर्तमान स्थिति से उसका इतना संबंध नहीं है जितना भविष्य की संभाव्य उन्नति से है। हमारे यहाँ युरोपीय ढंग के दुःखांत नाटक इसी लिये नहीं देख पड़ते। यदि आजकल दो- घार ऐसे नाटक देख भी पड़ने लगे हैं तो ये भारतीय श्रादर्श से दूर और युरोपीय आदर्श के अनुकरण मात्र हैं। कविता के क्षेत्र में ही देखिए । यद्यपि विदेशीय शासन से पीड़ित तथा अनेक फ्लेशों से संतप्त देश निराशा की चरम सीमा तक पहुँच चुका था और उसके सभी श्रवलंयों की इतिश्री हो चुकी थी, पर फिर भी भारतीयता के सच्चे प्रतिनिधि तत्कालीन महाकवि गोस्वामी तुलसीदास अपने विकार-रहित हदय से समस्त जाति को श्राखासन देते हैं- भरे भाग अनुराग लोग कहै राम अवध चितवन चितई है। विनती सुनि सानंद हेरि हसि करुनावारि भूमि भिजई है। राम राज भयो काज सगुन मुभ राजाराम जगत विजई है। समरथ बड़ो सुजान सुसाहब मुकृत-सेन हारत जितई है। श्रानंद की कितनी महान् भावना है। चित्त किसी अननुभूत ऐश्वर्य की कल्पना में मानो नाच उठता है। हिंदी साहित्य के विकास का समस्त युग विदेशोय तथा विजातीय शासन का युग था। इस कारण भारतीय जनता के लिये बह निराशा तथा संताप का युग था, परंतु फिर भी साहित्यिक समन्वय का कमी अनादर नहीं हुआ। श्राधुनिक युग के हिंदी कवियों में यद्यपि पश्चिमीय श्रादशी की छाप पड़ने लगी है और लक्षणों के देखते हुए इस छाप के अधिकाधिक गहरी हो जाने की संभावना हो रही है परंतु जातीय साहित्य की धारा अक्षुण्ण रखनेवाले कुछ कवि अब भी घर्तमान हैं। यदि हम थोड़ा सा विचार करें तो उपर्युक्त साहित्यिक समन्वय का रहस्य हमारी समझ में आ सकता है। जब हम थोड़ी देर के लिये साहित्य को छोड़कर भारतीय कलाओं का विश्लेषण करते हैं तय उनमें