पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१६३

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१६४ हिंदी साहित्य है कि हम प्रचलित व्याकरण के कुछ नियमों को शिथिल कर नवीन क्रियाएँ गढ़ लेने तक का विचार करने लगे हैं और "सरसाना", "विकसाना" श्रादि ब्रजभाषा के रूपों को भी सड़ी बोली में लेने लगे हैं। हिंदी में भावों के अनुरूप भापा लिखने का तो पर्याप्त सुभीता है, परंतु प्रत्येक शब्द में भावानुरूपता ढूँढना मेरे विचार में भापा-शास्त्र के नियमों के प्रतिकूल होगा। संस्कृत के स्त्रीलिंग "देवता" को हिंदी में पुल्लिंग बनाकर शब्द को भावात्मकता की रक्षा अवश्य हुई है; पर यह तो केवल एक उदाहरण है। इसके विपरीत संस्कृत के "फर्म" तथा "कार्य" को हिंदी में "काम" या "काज" बनाकर फर्म की स्वाभाविकता, कठोरता तथा कार्य की सच्ची गुरुता भुला दी गई है। कभी कभी तो हम अपने स्वभाव-वैषम्य के कारण शब्दों की सार्थकता का व्यर्थ विरोध करते हैं। प्रातःकालीन सुपमा की सच्ची द्योतकता "उपा" शब्द में है। हमारे प्राचीन ऋपियों ने उस सुपमा पर मुग्ध होकर उसे देवीत्व तक प्रदान किया था और वह "सरस्वती" के समकक्ष समझी गई थी। उपा के उपरांत जव सुपुप्त संसार जागकर कर्मक्षत्र में प्रवेश करता है और ये जप समस्त स्थावर-जंगम पदार्थ चैतन्य तथा कर्मण्य हो उठते हैं, उस समय के द्योतक 'प्रभात' शब्द की कल्पना स्त्रीलिंग में करना हमारी अपनी दुर्व- लता कहलाएगी, "प्रभात" के पुरुषत्व में उससे कुछ भी अंतर न पड़ेगा। हमारे यह सब कहने का तात्पर्य यही है कि यद्यपि हिंदी का शब्द-कोश बहुत कुछ काव्योपयोगी है, तथापि उसमें कुछ त्रुटियां भी हैं। कभी कभी उसकी पटियाँ बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती हैं और भापा के विकासक्रम की अवहेलना कर उसकी जाँच अपने चैयक्रिक विचारों के आधार पर होती है। यदि ऐसा न हुना करे तो हिंदी के शब्दों में भावानुरूपता की योग्यता संतोषजनक परिमाण में प्रतिष्ठित हो सकती है। . भारतीय संगीत की सबसे प्रधान विशेषता यह है कि उसमें स्वरों तथा लय का सामंजस्य स्थापित किया गया है। यूरोपीय संगीत _ में लय पर अधिक ध्यान दिया गया है और स्वरों हिंदी में भारतीय सात के सामंजस्य या राग की बहुत कुछ अवहेलना की गई है। इस देश में अत्यंत प्राचीन काल से संगीत की उन्नति होती श्राई है और अनेक संगीतशास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण भी होता आया है। यहाँ का प्राचीन संगीत यद्यपि अपने शुद्ध रूप में अब तक मिलता है, परंतु विदेशीय प्रभावों तथा अनेक देशभेदों के फल-स्वरूप उसकी 'देशी' नामक एफ विभिन्न शाखा भी हो गई जिसका विकास निरंतर होता रहा। हिंदी साहित्य के विकास-काल में "देशी" संगीत प्रचलित हो