पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१६५

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हिंदी साहित्य ध्यान देने की दूसरी यात यह है कि हिंदी साहित्य का संपूर्ण युग अशांति, निराशा तथा पराधीनता का युग रहा है। हिंदी के प्रारंभिक काल में देश स्वतंत्र अवश्य था परंतु उस समय तक उसकी स्वतंत्रता में बाधाएँ पड़ने लग गई थी और उसके सम्मुख प्रात्मरक्षा का कठिन प्रश्न उपस्थित हो चुका था। देश के लिये यह हलचल तथा अशांति का युग था। उसके उपरांत वह युग भी पाया जिसमें देश की स्वतंत्रता नष्ट हो गई और उसके अधिकांश भाग में विदेशीय तथा विजातीय शासन की प्रतिष्ठा हो गई। तब से अब तक थोड़े बहुत अंतर से वैसी ही परिस्थिति बनी है। हमारे संपूर्ण साहित्य में करुणा फी जो एक हलकी सी अंतर्धारा व्याप्त मिलती है वह इसी के परिणाम- स्वरूप है। पुरानी हिंदी के समस्त साहित्य में नाटकों, उपन्यासों तथा अन्य मनोरंजक साहित्यांगों का जो अभाव दिखाई देता है, वह भी बहुत कुछ इसी कारण से है। केवल कविता में ही जनता की स्थायी भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई और यही उनका इतिहास हुआ। सामाजिक मनोरंजन के एक प्रमुख साधन नाटक-रचना का विधान भी न किया जा सका। देश की परतंत्रता सर्वतोमुखी साहित्यिक उन्नति में बाधक ही सिद्ध हुई। श्रय तक जो कुछ कहा गया है उससे हिंदी साहित्य का स्वरूप समझने में थोड़ी बहुत सहायता मिल सिफती है; अथवा अधिक नहीं . तो उसकी कुछ स्थायी विशेषताओं का ही शान अपातशाल वाहत हो सकता है, परंतु फेवल कुछ विशेषताओं के प्रदर्शन से, साहित्य की प्रांशिक झलक दिखा देने से ही, साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। उपर्युक्त बातें तो केवल एक सीमा तक उसके उद्देश की पूर्ति करती हैं। किसी साहित्य के इतिहास का ठीक ठीक शान प्राप्त करने के लिये केवल उस साहित्य की जातिगत या देशगत प्रवृत्तियों को ही जानना श्रावश्यक नहीं होता, परन् विभिन्न फालों में उसकी कैसी अवस्था रही, देश के सामाजिक, धार्मिक तथा कला-कौशल संबंधी आंदोलनों के उस पर कैसे कैसे प्रभाव पड़े, किन किन व्यक्तियों की प्रतिभा ने उसकी कितनी और कैसी उन्नति की, ऐसी अनेक यातों का जानना भी अनिवार्य होता है। ऊपर के विवेचन में साहित्य के जिस अंग पर प्रकाश डालने की चेष्टा की गई है, वह प्रायः उसका स्थिर अंग है, परंतु उसका प्रगतिशील अंग भी होता है और यह प्रगतिशील अंग ही विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। समय परिवर्तनशील है और समय के साथ देश तथा जाति की स्थिति भी बदलती रहती है।