पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१६६

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विषय प्रवेश १६७ जनता के इसी स्थिति-परिवर्तन के साथ उसको चित्तवृत्तियाँ भी और की और हो जाती हैं। साथ ही साहित्य भी अपना स्वरूप यदलता चलता है। हिंदी साहित्य की भी बहुत कुछ ऐसी ही अवस्था रही है। देश के महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, सांप्रदायिक श्रादि आंदोलनों से उसके स्वरूप में बड़े बड़े परिवर्तन उपस्थित हुए हैं और कभी कभी तो उसकी अवस्था बिलकुल और की और हो गई है। यदि हम विगत नौ सौ वर्षों की हिंदी साहित्य की प्रगति का सिंहावलोकन करें तो कालक्रमानुसार उसके अनेक विभाग हिंदी साहित्य का दिखाई देंगे। उसके प्रारंभिक काल में धीर गाथाओं तथा अन्य प्रकार की घीरोल्लासिनी कालविभाग कविताओं की प्रधानता दिखाई देती है, यद्यपि उस काल की कविता में भंगार अथवा प्रेम की भी झलक पाई जाती है, तथापि घे वीरता की पुष्टि के लिये आए हैं, स्वतंत्र रूप में नहीं। जब जब वीरों को वीरता अथवा साहस का प्रदर्शन करना होता था, तब तव कविगण श्रृंगार की किसी मूर्तिमती रमणी की भी आयोजना कर लेते थे और उसके स्वयंवर आदि की कल्पना द्वारा अपनी वीरगाथाश्रों में अधिक रोचकता का समावेश करने का प्रयत करते थे। यही उस काल की विशेषता थी। इसके उपरांत हिंदी साहित्य अपने भक्तियुग में प्रवेश करता है और उसमें वैष्णव तथा सूफी फाव्य को प्रचरता देस पड़ती है। रामभक्त तथा कृष्णभक्त कवियों का यह युग हिंदी साहित्य का स्वर्णयग समझा जाता है। इसमें हिंदी कविता भावों और भापा दोनों की दृष्टि से उन्नति की चरम सीमा तक पहुँच गई। हिंदी कविता की इस अभूतपूर्व उन्नति के विधायक फवीर, जायसी, तुलसी तथा सूर आदि महाकवि हो गए हैं जिनकी यशोगाथा हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर हो गई है। इस युग के समाप्त होने पर हिंदी में *गारी कविता की अधिकता हुई और रीति-ग्रंथों की परंपरा चली। हमारे साहित्य पर मुगल-साम्राज्य की तत्कालीन सुख-समृद्धि तथा तत्संभव विलासिता की प्रत्यतछाप दिसाई देती है। कला-कौशल की अभिवृद्धि के साथ साथ हिंदी कविता में भी कलापक्ष की प्रधानता हो गई और फारसी-साहित्य तथा संस्कृत- साहित्य के पिछले स्वरूप के परिणाम में हिंदी में मुक्तक काव्य की अतिशयता देख पड़ने लगी। यद्यपि इस युग में शुद्ध प्रेम का चित्रण फरनेवाले रसखान, धनानंद तथा ठाकुर श्रादि कवि भी हुए और साथ हो भूपण आदि धीर कवियों का भी यही युग था, तथापि इसके प्रति.