पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१७५

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१७६ हिंदी साहित्य अस्तित्व ही प्रायः मिट सा गया जो किसी समय देशव्यापी हो रहा था। - चैदिक हिंदू धर्म की पुनःप्रतिष्ठा हो जाने पर शैव, शाक्त, वैष्णव श्रादि अनेक संप्रदाय भी चल निकले, जिनमें पारस्परिक स्पर्धा रहती थी। तत्कालीन राजपूतों की मनोवृत्ति की सहायता से शैव तथा शाक्त संप्रदायों की ही विशेष अभिवृद्धि हुई थी। तत्कालीन समाज में क्षत्रियों का प्रायल्य था, ब्राह्मण पूज्य अवश्य समझे जाते थे, पर उनकी श्रेष्ठता कम हो चली थी। यह राजपूतों का उत्थान काल था। राजपूत सरल प्रकृति के परंतु शक्तिसंपन्न और पीर योद्धा थे। उनकी उदारता भी कम प्रसिद्ध न थी। चे अपनी स्त्रियों का विशेष सम्मान करते थे और उगकी वीर रमणियां भी अपने पूज्य पतियों के लिये प्राणों तक का मोह नहीं करती थीं। जौहर की प्रथा तब तक प्रचलित थी जिससे तत्कालीन राजपूत वीरांगनाओं के पति परायणा होने का उज्ज्वल परिचय मिलता है। परंतु राजपूतो में बहुत से अवगुण भी थे जिनके कारण उनकी शक्ति क्षीण हो गई। चे क्रोधी थे, और छोटी छोटी बातों में उबल पड़ते थे। चैयक्तिक स्पर्धा से अंधे होकर जाति और राष्ट्र के लाभों को वे विस्मृत कर देते थे, संघटित होकर विपक्षियों का सामना करने के लिये वे प्रवृत्त न होते थे। यह ठीक है कि चीसलदेव, पृथ्वीराज, हम्मीरदेव तथा राणा साँगा जैसे वीर राजपूत भी हुए जिन्हें देश के गौरव का विशेप ध्यान था, पर अधिकांश राजपूत राजाभों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। प्रजा भी तत्कालीन राजनीतिक उलट-फेर में पड़कर अपना ध्येय निरूपित न कर सकी। फलतः उसमें भी कलह और विद्वेष का विप व्याप्त हो गया। जातीय पतन का यह बहुत ही भोपए काल था। उस समय के प्रसिद्ध मुसलमान इतिहासलेखक अलबरूनी के अनुसार भारतवर्ष में काश्मीर, दिल्ली, सिंध, मालवा तथा कन्नौज आदि प्रसिद्ध राज्य स्थापित थे। समाज में गोत्र, प्रवर आदि के अनुसार जाति पौति के झगड़े पढ़ रहे थे। चार वर्णों के स्थान पर अनेक उपजातियाँ हो गई थी जो परस्पर खान पान और विवाह आदि का संबंध नहीं रखती थीं। बाल-विवाह की प्रथा थी, पर विधवा- विवाह का निषेध था। ब्राह्मण मद्यप नहीं थे। अंत्यज श्राठ प्रकार के होते थे जिनमें पारस्परिक विवाहसंबंध होता था। उच्च वर्ण इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे, पर इस्लाम धर्म के साथ साथ समानता के सिद्धांत का प्रचार हुआ और अंत्यजों के प्रति उच्च वणों के व्यवहार में भी परिवर्तन हुए।