पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१८०

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मिन्न भिन्न परिस्थितियां शुष्क मायावाद को धक्का लगा और मोक्षप्राप्ति के लिये "हरि" रूप में विष्णु की प्रतिष्ठा हुई। । यद्यपि भक्ति के इस प्रवाह में लीन होकर हिंदू जनता अपनी लौकिक परिस्थिति को बहुत कुछ भूल गई, उसकी निराशा का बहुत कुछ परिहार हुश्रा, पर यह स्वीकार करना पड़ता है कि अभी तक भग• घान् की लोकरक्षिणी सत्ता की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी थी, केवल उसके लोकरंजक स्वरूप का साक्षात्कार हो सका था। रामानुज के "विष्णु" यद्यपि सगुण थे, पर वे भी लोकव्यवहार से तटस्थ थे। निवार्काचार्य के गोपी-कृष्ण अवश्य जनता के बीच खेले कूदे थे, पर खेल कूद से जो मनोरंजन होता है, उससे संसार के जटिल जीवन में थोड़ी ही सहायता मिल सकती है। जो भगवान दुपों का नाश कर सकें और साधुओं से सहानुभूति दिखा सकें, जो संसार में आकर संसार की परिस्थितियों में सफलतापूर्वक सहयोग कर सके और स्वयं सफल हो सके वही भग- चान् उस समय हिंदू जाति के लिये कल्याणकर हो सकते थे। इसके अतिरिक्त एक यात और थी। रामानुज आदि प्राचार्यों ने अपने भक्ति- निरूपण में संस्कृत भाषा का ही सहारा लिया था। संस्कृत उस समय की साधारण बोल-चाल की भाषा तो थी ही नहीं, अज्ञान के कारण जनता उस समय उसे और भी समझ नहीं सकती थी। आचार्यों की शिक्षा जनता के कानों तक कठिनता से पहुँच सकती थी; और यदि किसी प्रकार पहुँचती भी थी तो अपरिचित भाषा में होने के कारण उसके साथ हादिक सामंजस्य नहीं हो सकता था.। तीसरी बात यह थी कि इन श्राचार्यों की भक्ति द्विजातियों तक ही सीमित थी, शूद्र या अंत्यज उसके अधिकारी नहीं थे। घट घट में व्यापक भगवान् को भी इन श्राचार्यों ने अस्पृश्य जातियों से अलग रखने का उपक्रम किया था। भक्ति-मार्ग में इस प्रकार का भेद कदापि न होना चाहिए था, परंतु श्राचार्यो को तत्कालीन समाजव्यवस्था से एकदम छुट निकलने का अवसर नहीं मिला। वे भक्ति को लोकव्यापक न कर सके, यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से जीव मान को भक्ति का अधिकारी मानते थे। इन परिस्थितियों के कारण भक्ति का व्यापक प्रसार होने में बाधा उपस्थित हो रही थी। स्वामी रामानंद के प्रभाव से ये बाधाएँ दूर हुई और लोक में लोकरक्षक "राम" की प्रतिष्ठा हुई। रामानंद की धार्मिक उदारता के परिणाम स्वरूप भक्ति फो जो व्यापक स्वरूप मिला, उसके साथ ही "सीताराम" की लोकमंगलकारिणी मूर्ति की उपासना ने मिलकर मणि-कांचन संयोग उपस्थित कर दिया।