पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१८९

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१६० हिंदी साहित्य ही क्षेत्र में होता है और ललित कलाएँ तो केवल सजधज और वाद्य सौंदर्य से चित्त को श्राफर्पित करती हैं। उनका कथन है कि साहित्य ही भाव-सृष्टि है, कलाएँ तो केवल कारीगरी या चमत्कार का प्रदर्शन करती हैं। संभव है कलाओं की हीनता की यह व्याख्या उस समय के लिये उपयुक्त हो जय वे वास्तविक जीवन-सौंदर्य की धारा से अलग होकर रूढ़ि-बद्ध और अभ्यास-साध्य ही बन गई हो परंतु यह सर्वदा के लिये उपयुक्त नहीं हो सकती। और ऐसे समय तो साहित्य के इतिहास में भी पाए है जब वह भाव-प्रधान न रहकर केवल आलंकारिक या चमत्कार-युक्त वाणी-विलास ही बन गया है किंतु इस कारण साहित्य फा वास्तविक और उच्च लक्ष्य, भाव या रस का उद्रेक, नष्ट नहीं होता। यही यात कलायों के संबंध में भी कही जा सकती है। काव्यकार जिन भावनात्रों से प्रेरित होकर शब्दों द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करता है, चिन्न- कार या मूर्तिकार शब्दों का प्राश्रय न लेकर कूची, कागज, करनी, मस्तर-खंड श्रादि अन्य उपकरणों से उन्हीं भावों को प्रकट करता है। दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, केवल शैली या साधनों का भेद है। उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने चारों ओर प्रकृति का जो प्रसार देखता है, दार्शनिक उसे ब्रह्म की व्यक्त कला बतलाते हैं। ब्रह्म की यह कला शाश्वत है। इस शाश्वत कला पर मनुष्य चिर काल से मुग्ध होता तथा इसके साथ तादात्म्य का अनुभव करता चला आता है। प्रकृति के नाना रूपों के साथ मानव हृदय के नाना भावों का समन्वय अाज से नहीं, सृष्टि के श्रादि से होता पा रहा है। दार्शनिक कहते है कि ब्रह्म की यह अभिव्यक्ति उसकी कल्पना का परिणाम है, परंतु मनुष्य- हृदय ब्रह्म की इस अभिव्यक्ति में विश्व-हदय की भी झलक देखता है। इस प्रकार ब्रह्म की व्यक कला अनंत अभिव्यक्ति तथा अनंत विकास के रूप में समझी जाती है, जिसके मूल में ब्रह्म को अनंत कल्पना तथा उसका अनंत हृदय समाया हुआ है। मनुष्य का दृश्य-जगत् से अवि- च्छिन्न संबंध है। वह चिर काल से प्रकृति के अनंत सौंदर्य पर मुग्ध होता आया है। प्रकृति के नाना रूप मनुष्य के नाना भावों को जागरित तथा उत्तेजित करते आए हैं। सभ्य मानव समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभिव्यक्त तथा विकास का प्रार्थी है। इसकी उसे स्वाभाविक प्रेरणा होती है। इस प्रेरणा को कार्यरूप में परिणत करने में सृष्टि के नाना उपकरण उसके सहायक होते हैं। उसकी कल्पना तथा उसके हदय पर जगत् के नाना रूप जो प्रभाव डालते हैं, वह उन्हें अनेक रूपों में अभिव्यजित करता है।