पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१९०

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ललित कलाओं की स्थिति १६१ कभी मूर्ति बनाकर, कभी चित्र खींचकर, कभी कुछ गाकर तथा कभी कविता रचकर वह अपनी मनोगत भावनाओं तथा विचारों को व्यक्त करता है। इस प्रकार उन ललित कलाओं की सृष्टि होती है, जिनका इस अध्याय में संक्षिप्त विवरण दिया जायगा। यद्यपि हमारे देश में प्राचीन काल से ही कलाओं की विशेष उन्नति होती आई है, पर संभवतः एक पारिभाषिक शब्द के रूप में सामान “कला" का विवेचन यहाँ नहीं किया गया। हम उपनिपदों की अकल कला की बात नहीं कहते। साधारणतः कला और शिल्प श्रादि शब्द समवाची समझे जाते थे और अनेक मतों के अनुसार कलाओं की संख्या भी विभिन्न थी। सामान्य रूप से ग्रंथों में चौसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। इनमें कुछ उपयोगी तथा कुछ ललित कलाएँ भी सम्मिलित हैं, यद्यपि उपयोगी और ललित कलाओं का यह वर्गीकरण पाश्चात्य है। इस देश में अधिकतर स्त्रियों की कला तथा पुरुषों की कला श्रादि के स्थूल विभेद ही माने जाते थे। "साहित्य-संगीत-कला-विहीनः" वाले प्रसिद्ध पद्य में साहित्य तथा संगीत फला नहीं माने गए, मानो कला इनसे कुछ विभिन्न हो। अाधुनिक विवेचन के अनुसार साहित्य तथा संगीत प्रसिद्ध ललित कलाएँ हैं। श्रागे के पृष्ठों में हम जिन ललित कलाओं का विवरण देना चाहते हैं, पाश्चात्य विश्लेषण के अनुसार उनका नामकरण वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला तथा संगीतकला हो सकता है। इन्हीं के साथ साहित्यकला की भी गणना कर लेने से ललित कलानों की पांच शाखाएँ हो जाती हैं। हिंदी साहित्य के विकास का इतिहास उपस्थित करना तो इस पुस्तक का प्रतिपाद्य है ही, साथ ही तत्कालीन ललित कलाओं की प्रगति का विवरण भी प्रसंगवश इसमें दिया गया है। परंतु प्रगति के विवरण के पहले इनके स्वरूप से परिचित होना भी आवश्यक है। ललित कला के अंतर्गत वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत कला और काव्यकला-ये पाँच कलाभेद हैं। इन ललित कलाओं से ललित कलायों का मनुप्य के अलौकिक श्रानंद की सिद्धि होती है। ललित कलाएँ दो मुख्य भागों में विभक्त कीजा सकती स्वरूप है। एक ऐसी है जो मानसिक तृप्ति का साधन चरिंद्रिय के सन्निकर्ष से करती हैं और दूसरी श्रवणेंद्रिय के सन्निकर्प से। वास्तु (नगर मंदिर श्रादि का निर्माण), मूर्ति (तक्षणकला) और चित्र- कलाएँ तो दर्शन से तृप्ति का विधान करनेवाली हैं और संगीत तथा काव्य श्रवण से। यह ठीक है कि रूपकाभिनय अर्थात् दृश्य काव्य आँखों का ही