पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१९२

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ललित.फलाओं की स्थिति १६३ है। उसे सुचारू रूप से व्यवस्थित करने से भिन्न रसों और भावों का श्राविर्भाव होता है। अंतिम अर्थात् सर्वोच्च स्थान काव्यकला का है। उसमें मूर्त आधार की आवश्यकता ही नहीं होती। उसका प्रादुर्भाव शब्दसमूहों या वाक्यों से होता है जो मनुष्य के मानसिक भावों के घोतक होते हैं। काव्य में जव केवल अर्थ की रमणीयता रहती है, तव तो मूर्त अाधार का अस्तिख नहीं रहता, पर शब्द की रमणीयता पाने से संगीत के सदृश ही नाद-सौंदर्य के रूप में मूर्त आधार की उत्पत्ति हो जाती है। भारतीय काव्यकला में पाश्चात्य काव्यफला की अपेक्षा नाद- रूप मूर्त आधार की योजना अधिक रहती है और इसी आधार पर शब्दों की रमणीयता को फाव्य का एक प्रधान और कहीं कहीं मुख्य अंग माना गया है, पर अर्थ की रमणीयता के समान यह काव्य का अनिवार्य अंग नहीं है। अर्थ को रमणीयता काव्यकला का प्रधान गुण और नाद की रमणीयता उसका गौण गुण है। . हम जिस समय से ललित कलाओं का विवरण प्रारंभ करते हैं, यह भारतीय इतिहास का विशेष महत्त्वपूर्ण युग था । मुसलमानों के '.मुसलमान अाक्रमण तो पहले ही प्रारंभ हो चुके थे, अव वे और - राज्य-स्थापन करने तथा यहाँ श्राकर घसने के लालत कलाए प्रयास में थे। श्रय उनमें लटेरों की सी उतनी धर्वरता तथा उच्छं खलता नहीं रह गई थी, परन् वे अधिकाधिक सभ्य तथा संयत होते जा रहे थे। उनके सभ्य तथा संयत होने का यह अभिप्राय नहीं है कि भारत में श्राने के पहले चे नितांत घर तथा असभ्य थे, अथवा उनकी धार्मिक तथा संस्कृतिजन्य अवस्था अविकसित और पतित थो, वरन् हमारे कहने का श्राशय यह है कि धार्मिक उन्माद और करता आदि के कारण उनमें एक प्रकार की कर्कशता था गई थी जो असभ्यता की सूचक है। यह कर्कशता प्रारंभ के मुसलिम आक्रमणों की विशेषता थी। केवल भारतवर्ष में ही नहीं, अन्य प्रदेशों में भी मुसलमानों का प्रवेश उन देशों की विविध कलाश्रो तथा सभ्यता के निदर्शनों का नाशक ही हुश्रा, उन्नायक नहीं। यह हम तत्कालीन गवोत्थित मुसलिम शकि की बात कह रहे हैं। थोड़े समय के उपरांत जव उन्माद का प्रथम प्रवाह कुछ धीमा पड़ गया, और मुसलमानों ने तलवार के साथ साथ कुछ मनुष्यत्व भी धारण कर लिया, तय कलाथों के क्षेत्र में भी प्रचुर उन्नति हुई। हम ऊपर यतला चुके हैं कि भारत में आए हुए मुसलमान निरे असभ्य और जंगली न थे और उनका धार्मिक तथा सांस्कृतिक विकास