पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१९३

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वास्तुकल १६४ हिंदी साहित्य भी संतोषप्रद था। विविध कलाओं को उनकी निजी शैली थी जो भारतीय शैली से सर्वथा भिन्न थी। उनके भारत में आने पर दोनों शैलियों का सम्मिश्रण होने लगा, जो स्वाभाविक ही था। प्रत्येक कला पर इस सम्मिश्रण को छाप स्पष्ट देख पड़ती है, परंतु साथ ही दोनों का स्वतंत्र विकास भी अनुल्लेख्य नहीं है। नीचे हम वास्तुकला की तत्का- लीन अवस्था का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। - वास्तुकला के इतिहास में मुसलमानों तथा हिंदुओं को शैलियों का सम्मिश्रण बहुत ही रोचक तथा चमत्कारपूर्ण है। विजयी मुसल- मानों ने जिस प्रकार हिंदू तथा जैन मंदिरों को मुसलमानी तथा हिंदू तोड़कर मस्जिदें वनवाई वह एक दृष्टि से उनकी | कावारतम्य नशंसता का परिचायक है, और दूसरी दृष्टि से उनकी कलामर्मशता का द्योतक है। इस देश में श्राकर इस देश की समृद्ध ततएकला से प्रभावित न होना विदेशियों के लिये असंभव था। उन्हें अनिवार्य रीति से यहां के शिल्पसाधनों तथा शैलियों का प्रयोग करना पड़ा। उनके कारोगर सय अरव और फारस से तो आए नहीं थे; वे अधिकतर इसी देश के होते थे। श्रतः जव उनके भवन निर्माण का कार्य प्रारंभ हुश्रा, तव उसमें हिंदू-भवन-निर्माण-विधि की स्पष्ट झलक देख पड़ी। कलाविदों का कथन है कि समी भारतीय श्रादर्शी तथा शैलियों का प्रवेश, किसी न किसी रूप में, तत्कालीन मुसलिम इमारतों में हुआ। परंतु उन पर इस देश का ऋण केवल बाह्य श्रादों तथा शैलियों तक ही परिमित न रहा। भारतीय स्थापत्य की सबसे बड़ी दो विशेषताओं-शक्ति तथा सौंदर्य-की छाप भी उनमें पूरी पूरी देखी गई। मुसलिम स्थापत्य की ये विशेषताएँ भारत में ही उपलब्ध होती है, अन्य देशों में नहीं। जेरुसलम और दमिश्क आदि के यवन स्थापत्य में पच्चीकारी का जो सौष्ठव है, फारस के चीनी के खपड़ों में जो चमक दमक है, अथवा स्पेन की मस्जिदों में जो कल्पनात्मक विशेषता है, संभव है इस देश को मुसलिम इमारतों में वह न हो; परंतु शक्ति तथा सौंदर्य का ऐसा मणिकांचन-संयोग भारत को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिल सकता। मुसलिम तथा हिंदू तक्षणकला का साधारण विभेद मस्जिदों तथा मंदिरों की निर्माणली से ही प्रत्यक्ष हो जाता है। हिंदुओं के मंदिर का मध्य भाग, जहाँ मूर्ति रहती है, विशेष विस्तृत नहीं होता। उसमें एक प्रकार की अद्भुत प्रभविष्णुता तथा श्रनुभावकता रहती है, जो उसकी परिमिति के ही फल-स्वरूप होती है। इसके विपरीत मुसलमानों