पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२०९

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२०८ हिंदी साहित्य थी, उसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। इस नवीन अभ्युदय के परिणाम स्वरुप अन्य क्षेत्रों की भांति चिनकला के क्षेत्र में भी प्रगति देख पड़ी। इसका लक्ष्य केशव की कविताओं को चित्रित करना, नायिका-भेद एवं रागमाला श्रादि बनाना था। आगे चलकर दतिया दरवार में इसी कलम की देव, मतिराम और विहारी की चिनावली भी बनाई गई। चित्रकारों ने ज्योतिप और धर्मसंबंधी तथा अन्य चिन भी अंकित किए थे, पर प्रधानता भंगार की ही थी। बुंदेल चित्रकला का हिंदी साहित्य के विकास के साथ बड़ा घनिष्ठ संबंध है। राजपूत शैली की दूसरी शाता पहाडी चित्रकला के रूप में विक- सित हुई परंतु हमारे अन्येपण-क्षेत्र से इसका विशेष संबंध नहीं है। काँगड़ा आदि इस चित्रकला के प्रसिद्ध क्षेत्र हिंदी साहित्य के विकास- क्षेत्र के बहुत कुछ याहर ही रहे। इसी प्रकार सिखों के द्वारा भी अमृतसर में चित्रकला की थोड़ी बहुत उन्नति हुई परंतु उससे हमारा संपर्क यहुत थोड़ा है। इस देशी चित्रकला के साथ ही यहाँ के मुसलमान अधिपतियों- विशेपफर मुगलों के संरक्षण में भी चित्रकला का अच्छा विकास हुश्रा, परंतु यह सव होते हुए भी हमको यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मध्यकाल की सबसे लोकप्रिय चित्र-रचना-शैली राजपूताने की ही है जिसका उल्लेख हम अभी कर चुके हैं। यही शैली जनता की चित्तवृत्ति की सवसे अधिक द्योतक है। संवत् १९१४ के घलवे के साथ ही भारत में जो युगांतर उपस्थित हुना, उसके साथ यहाँ की चिनकला मायः निःशेष हो गई और युरोप के बने चिनों से भारत के रईसों, अमीरों तथा राजाओं के घरों का सजावटंगार होने लगा। यह यात यहाँ तक बढ़ी कि युरोप के भद्दछपे रंगीन चित्र भारतवर्ष के घर घर में व्याप्त हो गए। उन्नीसवीं शताब्दी के पिछले भाग में रवि वर्मा की वडी धूम हुई परंतु उनके बनाए कुछ चित्र तो बहु- रूपियों की प्रतिकृति मालूम होते हैं। उनमें कोई लोकोत्तर बात नहीं है, उनसे केवल हिंदू चित्रण-विशेप का पुनरत्थान अवश्य हुआ। राजा रवि वर्मा के इस प्रकार के चित्रों में गंगावतरण और शकुंतला-पत्र- लेसन मुख्य हैं। धुरंधर ने प्राचीन वेप-भूपा की ओर कुछ ध्यान दिया; किंतु उनको रचनाओं में कोई भाव, रस या प्राण नहीं मिलता। श्रीयुत अवनींद्रनाथ ठाकुर और उनके उद्भावक स्वनामधन्य श्रीयुत हैवेल के उद्योग से भारत में एक नई चित्रकला का जन्म हुआ ल