पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२११

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२१० हिंदी साहित्य है; उसके छारा तलवारों की झनकार, पत्तियों की खड़खड़ाहट, पक्षियों का कलरव हमारे कर्णकुहरों में पहुँचाया जा सकता है। परंतु यदि कोई चाहे कि वायु का प्रचंड वेग, विजली की चमक, मेघों की गड़गड़ा- हट तथा समुद्र की लहरों के श्राघात भी हम स्पष्ट देख या सुनकर उन्हें पहचान ले, तो यह यात संगीत की सीमा के बाहर है। संगीत का उद्देश हमारी आत्मा को प्रभावित करना है और इसमें यह कला इतनी सफल हुई है जितनी काव्यकला को छोड़कर और कोई कला नहीं हो सकी। संगीत हमारे मन को अपने इच्छानुसार चंचल कर सकता है , और उसमें विशेष भावों का उत्पादन कर सकता है। इस विचार से यह कला पास्तु, मूर्ति और चित्रकला से बढ़कर है। संगीतकला और काव्यकला में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। उनमें अन्योन्याश्रय भाव है। एकाकी होने से दोनों का प्रभाव बहुत कुछ कम हो जाता है। यो तो अायों का वैदिक काल से ही संगीत से घनिष्ठ संबंध था और उन्होंने संगीत शास्त्र पर सामवेद रच डाला था। परंतु वि०. ग्रादि काल ११०० के लगभग तो उनकी संगीतकला अत्यधिक उन्नत हो चुकी थी और चे संगीत में श्रावश्यकता से अधिक संलग्न थे। कुछ विद्वानों की सम्मति में राजपूतों के तत्का- • लीन पतन का एक प्रधान कारण संगीत था। उस समय के राजदरवारों में संगीत का विशेष प्रवेश ही नहीं था, परन् स्वयं राजागण इसके पंडित होते थे। इनमें से नान्यदेव, भोज, परमर्दि चंदेल और जगदैकमल्ल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। चे संगीत की उन्नति और प्रचार के लिये उसकी शिक्षा की व्यवस्था करते थे और समय समय पर उसके सम्मेलन भी कराते थे। जिस प्रकार नाट्यकला के आदि आचार्य भरत मुनि माने जाते हैं उसी प्रकार संगीतकला के श्रादि प्राचार्यों में भी उनका स्थान विशिष्ट है। उनका नाट्यशास्त्र केवल अभिनय कला का ही प्रमुख शास्त्रीय ग्रंथ नहीं है, वरन् संगीत और नृत्य कलाओं के संबंध में भी वह भरत मुनि की विशेप योग्यता तथा अनुभव का परिचायक है। संवत् १२५० के लगभग का संगीताचार्य शाङ्गदेव का लिखा हुश्रा "संगीतरताकर" नामक एक प्रामाणिक ग्रंथ है। उसे देखने से जान पड़ता है कि उस समय देश भर में जो संगीत प्रचलित था, उसका प्रकृत वंशधर वर्तमान कर्णाटकी संगीत है। उसमें जो गेय कविताएँ मिलती हैं ये संस्कृत की हैं, परंतु बोलचाल की भाषा में भी गीतों की रचना उसके पहले ही से होती थी। संस्कृत तथा बोलचाल की भाषा