पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२१६

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ललित कलात्रों की स्थिति २१३ 'ख्याल' का खूब प्रचार हुआ था और पंजाब के मियाँ शोरी नामक एक उस्ताद ने "टप्पा" नामक गानशैली को जन्म दिया था जिसमें गले से "दानेदार" तान निकालने की अद्भुत विशेषता है। ___दिल्ली के नाश के साथ साथ वहाँ का गायक-समुदाय भी छिन्न- भिन्न होने लगा। राजाओं तथा नवायों ने उसे आश्रय दिया। मराठों ने संगीत को खूब अपनाया। ख्याल के पिछले सभी आचार्य ग्वालियर में ही हुए। अव भी स्याल का वह सबसे बड़ा केंद्र है। कृष्णानंद व्यास नामक एक संगीतप्रेमी किंतु अर्थहीन ब्राह्मण सज्जन ने साधारण परिश्रम करके सं० १६०२ के लगभग 'राग-कल्पद्रुम' नामक संग्रह चार विशाल खंडों में प्रकाशित किया। गेय साहित्य का सचमुच यह ग्रंथ कल्पद्रुम है। उस काल में भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक संकीर्णचित्त गायकों से उनकी चीजों का संग्रह करना अवश्य ही भगीरथ प्रयत था। अवध के अधीश्वर वाजिद अली शाह ने ठुमरी नामक गान-शैली की परिपाटी चलाई। यह संगीत-प्रणाली का अन्यतम स्त्रेण और शृंगा- रिक रूप है। इस प्रकार अकवर के समय के ध्रपद की गंभीर परिपाटी, मुहम्मदशाह द्वारा अनुमोदित स्याल की चपल शैली, उन्हीं के समय में श्राविप्कृत टप्पे की रसमय और कोमल गायिकी तथा वाजिद अली शाह के समय की रँगीली रसीली ठुमरी अपने अपने श्राश्रयदाताओं की मनो- वृत्ति की ही परिचायक नहीं, लोक की प्रौढ रुचि में जिस क्रम से पतन हुश्रा, उसका इतिहास भी है। वर्तमान संगीत की दशा बहुत गिरी हुई है। प्राचीन गायक केवल स्वरों का रियाज और कलाबाजी दिखाना ही संगीत समझते हैं, वर्तमान काल गेय कविता दुरी तरह से तोड़-मरोड़ दी गई है। हारमोनियम के प्रचार और थियेट्रिकल गाने की अभिरुचि ने भारतीय संगीत पर विशेष श्राघात पहुँचाया है। हार- मोनियम का एक स्वर दूसरे स्वर से जुड़कर नहीं बज सकता, अतः उसमें श्रुतियाँ या मीड़ नहीं निकल सकीं; और हिंदुस्तानी संगीत की यह एक प्रधान विशेषता है कि उसमें दो तो क्या चार चार पाँच पाँच स्वर मीड़ वा तान के रूप में एक साथ श्राश्लिष्ट हो जाते हैं। प्राचीन हिंदू संगीत कोंकण और मद्रास में जीवित रह पाया है। वीणा तंत्र भी चहीं अब तक जीवित है। प्राचीन संगीत के उद्धार, परिष्कार और उन्नति के लिये श्रीविष्णु दिगंबर और श्रीविष्णु नारायण भातखंडे ने बहुत उद्योग किया है और कर रहे हैं। भातखंडेजी संगीत