पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२१७

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२१४ . .हिंदी साहित्य के प्रयोग के ही नहीं, शास्त्र के भी बहुत बड़े विद्वान् है और उन्होंने स्वरलिपि की जो पद्धति निकाली है, यह बहुत सरल, संक्षिप्त और प्रायः सर्वमान्य है। रागों के लक्षण के गीत तत् तत् रागों में बांधकर उन्होंने संगीत के विद्यार्थियों का मार्ग यहुत सुगम कर दिया है। उनके उद्योग और प्रेरणा से बड़ोदा, ग्वालियर, चंबई, लखनऊ तथा अन्य कई स्थानों में संगीत की बड़ी बड़ी और सफल पाठशालाएँ चल रही हैं। बंगाल भी आज से ५० वर्ष पहले से ही आधुनिक संगीत में दत्त- चित्त है। स्वर्गीय राजा सौरद्रमोहन ठाकुर और कृष्णधन बंद्योपाध्याय श्रादि ने इस क्षेत्र में बहुत बड़ा प्रयत किया था। कवि रवींद्रनाथ ठाकुर के संगीत का एक निराला ढंग है, पर यह सर्वमान्य नहीं है। यहाँ के जिस संगीत में लोकाभिरुचि है, वह यद्यपि हिंदुस्तानी संगीत है, किंतु उस पर पाश्चात्य संगीत की छाया विशेप पड़ी है। इस समय संगीत के उन्नयन के लिये जो उद्योग पूना के बालिका विश्वविद्यालय, काशी- विश्वविद्यालय, वोलपुर के विश्व भारती विद्यालय श्रादि में हो रहा है उससे इसका भविप्य बहुत कुछ श्राशाप्रद जान पड़ता है। उपसंहार ऊपर हम विविध कलाओं के विकास का जो संक्षिप्त विवरण दे श्राए हैं उससे कुछ निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। सव कलाएँ मानव चित्त- वृत्तियों की अभिव्यक्ति है। जिस देश में जिस काल में हमारी जैसी चित्तवृत्ति रहती है वैसी ही प्रगति ललित कलाओं की होना स्वाभाविक है। हमने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार फालों में विभक्त किया है और प्रत्येक काल की परिस्थिति का विवेचन किया है। अन्य ललित फलानों का दिग्दर्शन करते हुए भी हमने साहित्य के उपर्युक्त चार काल- विभागों को प्रधानता दी है और उसी के अनुरूप सब ललित कलाओं का काल-विभाग भी किया है। इस प्रकार जय हम विभिन्न कालों की साहित्यिक परिस्थिति केराथ उन उन समयों को ललित कलाओं की परिस्थिति की तुलना करते हैं तब एक शोर तो हम उनमें बहुत कुछ समता पाते हैं, पर जहाँ कुछ विभेद मिलता है वहाँ उस काल को जनता की उन चित्तवृत्तियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है जिनका प्रतियिय साहित्य में नहीं देख पड़ता। इससे हमको बहुत कुछ व्यापक रीति से तत्कालीन स्थिति को समझने में सहायता मिलती है। हिंदी का प्रादि काल वीर गाथाओं का काल था। प्रबंध काव्यों और वीर गीतों के रूप में वीरों की प्रशस्तियाँ कही गई। चीरता के