पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा अध्याय वीरगाथा काल हिंदी साहित्य के श्रादि युग के संबंध में इतिहासवेत्ताओं तथा भाषाशास्त्रियों ने अब तक जितनी खोज की है वह विशेष संतोषजनक . नहीं कही जा सकती। उतने से अभी तक न तो ९५ पाप का आरम हिंदी के उत्पत्तिकाल का ठीक पता चलता है और न उसके प्रारंभिक स्वरूप का निश्चय हो सकता है। यद्यपि यह सत्य है कि हिंदी की उत्पत्ति अपनश भाषाओं के अनंतर हुई, परंतु इस अपभ्रंश-परंपरा का कब अंत हुश्रा और कब हिंदी पहले पहल प्रयोग में आई, इसका पता निश्चित रीति से अब तक नहीं लग सका है। भाषाएँ क्रमशः एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती हैं और यह परिवर्तन या विकास उनकी उत्पत्ति से ही प्रारंभ होता है। इस अवस्था में हिंदी ही नहीं, किसी भाषा की उत्पत्ति का ठीक ठीक काल निश्चित करना असंभव है। परंतु साहित्य के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता। (जय भाषाएँ कथ्य अवस्था से निकलकर साहित्य अवस्था में पाती है तभी से उनके साहित्य का श्रारंभ माना जा सकता है। पर इस दिशा में भी अभी तक पूरी पूरी खोज नहीं हुई है। हिंदी के कुछ इतिहासलेखकों ने उसके श्रादि युग का प्रारंभ विक्रम की सातवीं शताब्दी से माना है और अपने मत का समर्थन अलंकार तथा रीति- संबंधिनी एक ऐसी पुस्तक के नामोल्लेख से किया है जो अब तक अप्राप्य है तथा जिसके एक भी उद्धृत अंश के अब तक किसी को दर्शन नहीं हुए हैं। हम इस मत के समर्थक नहीं हैं। एक तो किसी लक्षण ग्रंथ को साहित्य के श्रादि युग की पहली पुस्तक मानने में यो ही बड़ी द्विविधा होती है। पर यदि संस्कृत साहित्य के परिणाम स्वरूप ऐसा संभव भी हो तो भी यह स्पष्ट ही है कि इस अलंकार. ग्रंथ की रचना के उपरांत लगभग दो तीन सौ वर्षों तक कोई दुसरी पुस्तक हिंदी में नहीं लिखी गई, अथवा यदि लिखी गई, तो अब उसका कहीं पता नहीं है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि विक्रम फी पाठची, नवी तथा दसवीं शताब्दियों में प्राकृत श्रथवा अपभ्रंश की पुस्तकें लिखी जाती थीं, और उनमें से अनेक पुस्तके तथा पद्य हमें इस समय भी २८