पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२२४

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२२१ घोरगाथा काल तियों को प्रात्मार्पण फरती गई, और अपरिणामदर्शी नृपतियों ने घर में ही वैर तथा फूट के चे बीज बोए जिनका कटु फल देश तथा जाति को चिरकाल तक भोगना पड़ा। देश के जिस भूभाग में जिस समय ऐसी अशांति तथा अंधकार का साम्राज्य छाया हुआ था, उसी भूभाग में लगभग उसी समय अपभ्रंश स्थिति के अनुरूप साहित्य भाषाओं से उत्पन्न होकर हिंदी साहित्य अपना "ए शैशव काल व्यतीत कर रहा था। हिंदी की इस शैशवावस्था में देश की जैसी स्थिति थी, उसी के अनुरूप उसका साहित्य भी विकसित हुश्रा। भीषण हलचल तथा घोर अशांति के उस युग में वीर गाथाओं की ही रचना संभव थी, साहित्य की सर्वतोमुखी उन्नति उस काल में हो ही नहीं सकती थी। यह तो साधारण यात है कि जिस समय कोई देश लड़ाइयों में व्यस्त रहता है और जिस काल में युद्ध की ही ध्वनि प्रधान रूप में व्याप्त रहती है, उस काल में वीरोल्लासिनी कवि- ताओं की ही गूंज देश भर में सुनाई पड़ती है। उस समय एक तो अन्य प्रकार की रचनाएँ होती ही नहीं, और जो थोड़ी बहुत होती भी हैं, चे सुरक्षित न रह सकने के कारण शीघ्र ही कालकवलित हो जाती हैं। हिंदी के श्रादि युग में जो केवल चीररस की कविताएँ मिलती है, उसका यही कारण है। यहाँ इस बात का भी उल्लेख कर देना श्रावश्यक होगा कि तत्का- लीन कविता की रचना राजाओं के प्राश्रय में ही हुई; अतः उसमें राजा- राजाश्रय और उसका श्रित कविता की प्रायः सभी विशेषताएँ मिलती परिणाम " हैं। यद्यपि उस काल के राजाओं की नीति देश के लिये हितकर नहीं थी और उनके पारस्परिक विद्वेष तथा संघर्ष से जो अग्नि प्रज्वलित हुई, उसने देश की स्वतंत्रता को भस्म करके ही साँस लिया, तथापि राजाधित कवियों की वाणी अपने स्वामियों के कीर्ति-कथन में कभी कुंठित नहीं हुई। तात्पर्य यह है कि उस समय के कवि प्रायः राजाओं को प्रसन्न रखने और उनके कृत्यों का अंध समर्थन करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझ यैठे थे। देश की स्थिति और भविष्य की ओर उनका ध्यान ही न था। जिस समय कचियों की ऐसी हीन अवस्था हो जाती है और जिस समय कविता में उच्च श्रादों का समावेश नहीं होता उस समय देश और जाति की ऐसी दुर्दशा अवश्यंभावी हो जाती है। हिंदी के श्रादियुग में अधिकांश ऐसे ही कवि हुए जिन्हें समाज को संघटित तथा सुव्यवस्थित कर उसे विदेशीय आक्रमणों से रक्षा करने में समर्थ बनाने की उतनी