पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२२६

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वीरगाथा काल २२३ कुशलता का परिचय देते थे। कभी कभी ये कवि देश के अंतर्विद्रोह में सहायक होकर वाणी का दुरुपयोग भी करते थे, पर यह उस काल की एक ऐसी व्यापक विशेपता थी कि कविगण उससे सर्वथा मुक्त नहीं हो सकते थे। पीछे चलकर डिंगल काव्यों में यह दोप अधिक व्यापक रूप में देख पड़ता है। उस युग के कवियों में उच्च कोटि के कवित्व की झलक भी मिलती है। यद्यपि जीवन के अनेक अंगों की व्यापक तथा गंभीर व्याख्या तत्कालीन कविता में नहीं पाई जाती, पर उन्होंने अपनी कृतियों में वीरा के चरित्र-चित्रण में नई नई रमणीय उद्भावनाओं तथा अनेक रमणीय सूक्तियों का समावेश किया है। इस काल के कवियों का युद्धवर्णन इतना मार्मिक तथा सजीव हुया है कि उनके सामने पीछे के कवियों की अनुप्रासगर्भित किंतु निर्जीव रचनाएँ नकल सी जान पड़ती हैं। कर्कश • पदावली के बीच में धीर भावों से भरी हिंदी के आदि युग की यह कविता सारे हिंदी साहित्य में अपनी समता नहीं रखती। दोनों ओर की सेनाओं के एकन होने पर युद्ध के साज-याज तथा आक्रमण की रीतियों का जैसा वर्णन इस युग के कवियों ने किया, वैसा पीछे के कवियों में देखने में नहीं आया। उनकी वीर वचनावली में शस्त्रों की झंकार स्पष्ट सुन पड़ती है, और उनके युद्ध-वर्णन के सजीव चित्र वीर हृदयों में अब भी उल्लास उत्पन्न करते हैं। ऐसे कवियों की रचनाओं में सर्वत्र उनके चीर हृदय का परिचय मिलता है अतः हम उन्हें मिथ्या स्तुति करनेवाले काल्पनिक वीरगाथाकार कवियों की श्रेणी में नहीं रख सकते। हिंदी में वीर गाथाएँ दो रूपों में मिलती हैं-कुछ तो प्रबंध काव्यों के रूप में और कुछ वीर गीतों के रूप में। प्रबंध के रूप में वीर कविता करने की प्रणाली प्रायः सभी साहित्यों में चिरकाल. से चली ना रही है। यूनान के प्राचीन साहित्य- शास्त्रियों ने महाकाव्यों की रचना का मुख्य आधार युद्ध ही माना है और उनकी वीर-रसात्मकता स्वीकार की है। वहाँ के आदि कवि होमर के प्रसिद्ध महाकाव्य की आधारभूत घटना ट्राय का युद्ध ही है। भारतवर्ष के रामायण तथा महाभारत महाकाव्यों में युद्ध का ही साम्य है। अन्य घटनाओं में बड़ा अंतर है। वीर गीतों के रूप में भी चीर पुरुषों की प्रशस्तियाँ पाई जाती है। हिंदी की वीर गाथाओं में प्रबंध रूप से सबसे प्राचीन ग्रंथ, जिसका उल्लेख मिलता है, दलपति विजय का खुमानरासो है। ऐसा कहा जाता है कि इसमें चित्तौड़ के दूसरे प्रबंध काव्य