पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२४ हिंदी साहित्य खुम्माण (वि० सं० ८७०-६००) के युद्धों का वर्णन था। इस समय इस पुस्तक की जो प्रतियाँ मिलती है उनमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन है। संभव है कि यह प्राचीन पुस्तक का परिवर्धित संस्करण हो अथवा उसमें पीछे के राणाओं का वर्णन परिशिष्ट रूप से जोडा गया हो। इस पुस्तक के संबंध में अभी बहुत कुछ जाँच पड़ताल की श्रावश्यकता है। धीर गाथा संबंधी प्रबंध काव्यों में दूसरी प्रसिद्ध पुस्तफ चंद यरदाई कृत पृथ्वीरॉजरासो है। इस विशालकाय ग्रंथ को हम महाकाव्यों की उस श्रेणी में नहीं गिन सकते जिसमें यूनान के प्रसिद्ध महाकाव्य ईलियड आदि तथा भारतवर्ष के रामायण महाभारत श्रादि की गणना होती है। ये महाकाव्य तो एक समस्त देश और एक समस्त जाति की स्थायी संपत्ति है, इनमें जातीय सभ्यता तथा संस्कृति का सार अंतर्निहित है। यह सत्य है कि पृथ्वीराजरासो भी एक विशालकाय ग्रंथ है और यह भी सत्य है कि महाकाव्यों की ही भांति इसमें भी युद्ध की ही प्रधानता है, पर इतने ही साम्य के आधार पर उसे महाकाव्य कहलाने का गौरव नहीं प्रोप्त हो सकता। महाकाव्य में जिस व्यापक तथा गंभीर रीति से जातीय चित्तवृत्तियों को स्थायित्व मिलता है, उनका पृथ्वीराजरासो में सर्वथा अभाव है। महाकाव्य में यद्यपि एक ही प्रधान युद्ध होता है, तथापि उसमें दो विभिन्न जातियों का संघर्ष दिखाया जाता है और उसका परिणाम भी बड़ा व्यापक तथा विस्तृत होता है। पृथ्वीराजरासो में न तो कोई एक प्रधान युद्ध है और न किसी महान् परिणाम का ही उल्लेख है। सयसे प्रधान वात यह है कि पृथ्वीराजरासो में घटनाएँ एक दूसरी से असंबद्ध है तथा कथानक भी शिथिल और अनियमित है; महाकाव्यों की भांति न तो घटनाओं का किसी एक आदर्श में संक्रमण होता है और न अनेक कथानकों की एकरूपता ही प्रतिछित होती है। ऐसी अवस्था में पृथ्वीराजरासो को महाकाव्य न कहकर विशालकाय पीर काव्य कहना ही सगत होगा। पृथ्वीराजरासो में युद्धों की प्रधानता के साथ ही शृंगार को प्रचुरता भी की गई है। वीरों को यद्ध के उपरांत विधामकाल में मनबहलाव के लिये प्रेम करने की आवश्यकता होती है, और काव्यों में भी रसराज श्रृंगार के बिना काम नहीं चल सकता। इसी विचार से अन्य देशों में, ऐसे वीर काव्यों में, युद्ध और प्रेम की परंपरा प्रतिष्ठित हुई थी। पृथ्वीराजरासो श्रादि वीर काव्यों में भी बीच बीच में भंगार