पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३१

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२२८ हिंदी साहित्य जीति महुव्या लीय पर दिल्ली प्रानि सुपथ्थ । जंज कित्ति कला बढ़ी मलैसिह जस कम्य ॥ इस दोहे का स्पष्ट अर्थ यह है कि जिस प्रकार कीर्ति बढ़ती गई, उसी प्रकार मलैंसिंह यश करता गया। मलैसिंह पज्जूनराय के लड़के का नाम भी था, पर यहाँ उससे कोई प्रयोजन नहीं जान पड़ता। ऐसा जान पड़ता है कि मलैंसिंह नामक किसी कवि ने इस रासो में अपनी कविता मिलाकर भिन्न भिन्न सामंतों का यश वर्णन किया। अतएव यदि अधिकांश क्षेपक मिलाने के लिये हम और किसी के नहीं तो मलै- सिंह के अवश्य अनुगृहीत है। सारांश यह कि वर्तमान रूप में पृथ्वीराजरासो में प्रतिप्त अंश बहुत अधिक है पर साथ ही उसमें बीच बीच में चंद के छंद विखरे पड़े हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इन छंदों का संग्रह, संकलन या संपादन संभवतः संवत् १६३६ और १६४२ के बीच में हुआ था। उसी समय बहुत कुछ कथानक बढ़ा घटाकर इन छंदों को ग्रंथ रूप दिया गया और पीछे तो न जाने कितना और अधिक जोड़ तोड़कर उसका वर्तमान रूप प्रस्तुत किया गया। जो कुछ हो, इस वृहद् ग्रंथ में यद्यपि विस्तार के साथ पृथ्वीराज चौहान का चीर चरित ही अंकित किया गया है पर अनेक प्रासंगिक विवरण के रूप में क्षत्रियों के चार कुलों की उत्पत्ति और उनके अलग अलग राज्यस्थापन आदि की भी कल्पना की गई है। पृथ्वीराज की पूर्व परंपरा का हाल लिखकर कवि उसकी जीवनी को ही अपने ग्रंथ का प्रधान विषय बनाता है और प्रासंगिक रीति से तत्कालीन राज- नीतिक स्थिति का दिग्दर्शन भी कराता है। पृथ्वीराज के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं में अनंगपाल द्वारा गोद लिए जाने पर उसका दिल्ली और अजमेर के राजसिंहासनों का अधिकारी होना, कन्नौज के राठौर राजा जयचंद से विद्वेष होने के कारण उसके राजसूय यश में न सम्मिलित होकर छिपे छिपे उसकी कन्या संयुक्ता को हर लाना, जयचंद तथा अन्य क्षत्रिय नृपतियों से अनेक यार युद्ध करना, क्षीणशक्ति हो जाने पर भी अफगानिस्तान के गोर प्रदेश के अधिपति शहाबुद्दीन के आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना करना, कई बार उसे कैद करके छोड़ देना आदि श्रादि अनेक प्रसंगों का, जिनमें से कुछ कविफल्पित हैं और कुछ ऐतिहासिक तत्त्वों पर अवलंबित है, घड़ा ही मार्मिक तथा काव्य-गुण-संपन्न वर्णन इस ग्रंथ में पाया जाता है।