पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३४

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वीरगाथा काल २३१ साहित्यिक प्रयास पृथ्वीराजरासो में पाया जाता है, उतना वीर गीतों में नहीं पाया जाता, फिर भी उनमें अरोचकता कहीं नहीं श्राने पाई है। चीर गीतों में यद्यपि वीर भावों की ही अधिकता रहती है, पर वीरों की कोमल मनोवृत्तियों के प्रदर्शनार्थ उनमें शृंगारिक वर्णन भी होते हैं। वीसलदेवरासो को तो उसके वर्तमान रूप में एक प्रेमगाथा ही कह सकते है, परंतु उसमें भी वीरों के सरल तथा कोमल हृद्य की व्यंजना हो जाती है। यही उसके चीर गीत कहलाने की सार्थकता है। पाल्ह- खंड में पाल्हा, ऊदल (उदयसिंह ) आदि की वीर वाणी तथा धीर कृत्यों का जो जमघट सा उपस्थित किया गया है, उसके मूल में भी प्रेम ही है, और स्थान स्थान पर उस प्रेम की निश्चय ही बड़ी सरस तथा मधुर व्यंजना पाई जाती है। . उपर्युक्त गुणों के कारण ही साधारण जनता में चीर गीतों का जितना प्रचार हुश्रा, उतना वीर प्रवंधों का नहीं हुश्रा। अपने साहि- त्यिक गुणों के कारण पृथ्वीराजरासो उस युग की सबसे श्रेष्ठ तथा महत्त्वपूर्ण कृति है। और इस दृष्टि से उसकी तुलना में वीर गीत नहीं ठहर सकते, परंतु ऐसा जान पड़ता है कि राज-दरवारों, अथवा अधिक से अधिक दिल्ली तथा अजमेर के पास पास के प्रदेशों को छोडकर देश के अन्य भागों की जनता में पृथ्वीराजरासो कर कुछ भी प्रचार नहीं हा। प्रचार की दृष्टि से पाल्हखंड या पाल्हा सबसे अधिक सौभाग्य- शाली हुश्रा। यद्यपि इस प्रचाराधिक्य के कारण उसका पूर्व स्वरूप बहुत कुछ विकृत होकर विस्मृत भी हो गया, पर अपने नवीन रूप में । वह आज भी उत्तर भारत की जनता का कंठहार हो रहा है। प्रापाढ़ और श्रावण के महीनों में जव वर्षा होने पर ग्रीष्म ऋतु का ताप बहुत कुछ कम हो जाता है और जव यादलों की गरज से हृदय एक अलौकिक उल्लास का अनुभव करने लगता है, तव ग्रामों में आज भी ढोल को गंभीर ध्वनि के साथ श्रल्हैतों के तारस्वर में "पाल्हा" के किसी प्रसंग का सुन पड़ना सबके साधारण अनुभव की बात है। युक्त प्रांत के वैसवाड़ा आदि प्रदेशों में शाल्हा का बहुत अधिक प्रचार है और वहाँ संभवतः गोस्वामीजी के रामचरितमानस को छोड़कर दूसरा सर्वप्रिय ग्रंथ पाल्ह- खंड ही है। हम इन दोनों वीर गीतों का विवेचन आगे करते हैं- इस छोटे से काव्य की रचना, वीर गीत की शैली पर, विक्रम वीसलदेवराम संवत् १२१२ में हुई थी। इसका रचयिता नरपति " नाल्ह नामक कवि अपने आश्रयदाता वीसलदेव का समकालीन और संभवतः राजकवि था। वीसलदेव उपनाम धारण