पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३७

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हिंदी साहित्य कोई अधिक श्राश्चर्य की बात नहीं है। पर साथ ही भापाओं के क्रमिक विकास का ध्यान करके हमें यह कहने में भी संकोच नहीं हो सकता कि अवश्य पीछे से भी इनकी रचनाओं का परिमार्जन हुना होगा। जिस प्रकार चंदवरदाई आदि वीरगाथाकारों की रचना में तत्कालीन हिंदू-मनोवृत्ति का परिचय मिलता है और हिंदुओं के राज- दरवारों की अवस्था का अभिशान होता है, उसी प्रकार अमीर खुसरो की रचनाओं में हम मुसलमानों के उन मनोमायों की झलक पाते हैं जो उनके इस देश में श्राकर बस जाने के उपरांत यहाँ की परिस्थिति से प्रभावान्वित होकर तथा यहाँ की आवश्यकताओं का ध्यान रखकर उत्पन्न हुए थे। इस विचार से, यद्यपि हम खुसरो की कृतियों में साधा. रण जनता की चित्तवृत्तियों की छाप नहीं पाते परंतु तत्कालीन स्थिति से परिचित होने के लिये हमें उनकी उपयोगिता अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी। भापा के विकास की दृष्टि से खुसरो की मसनवियों तथा पहेलियों का और भी अधिक महत्त्व है। खुसरो द्वारा प्रयुक्त खड़ी घोली के शुद्ध भारतीय स्वरूप में अरव और फारस के शब्दों की भरमार करके श्राजकल के कृत्रिम उर्दू चोलनेवाले जब अाधुनिक हिंदी को उर्दू से उत्पन्न यतलाने लगते हैं, तब उनके भ्रमनिवारणार्थ खुसरो की रच. नाओं का जो सहारा लेना पड़ता है वह तो है ही, भारतीय भाषाशास्त्र फे एक अंग की पूर्ति के लिये उपकरण वनकर सहायता देने में भी उनकी कृतियों ने कम काम नहीं किया है। परंतु खुसरो को कविता का वास्तविक रहस्य समझाने के लिये हमको तत्कालीन कलाओं पर भी ध्यान देना होगा। उनकी कुछ रचनाएँ फारसी में और कुछ हिंदी में पाई जाती हैं तथा कुछ रचनाशी में मिश्रित भाषा का प्रयोग भी दिखाई देता है। जब हम उस समय की वास्तु कला और संगीत कला पर ध्यान देते हैं तो उनमें हिंदू श्रीर मुसलमान भादशी का मेल पाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उस समय हिदू मुसलमानो मे परस्पर बहुत कुछ श्रादान-प्रदान प्रारंभ हो गया था। यद्यपि साहित्य में हिंदी के वीरगाथा काल तक अपनी पूर्व परंपरा का परित्याग नहीं पाया जाता, परंतु यहाँ की भाषा में बहुत कुछ विदेशीय शब्द थाने लगे थे। अमीर खुसरो ने अपना "खालिकयारी" कोश तैयार करके भाषा के श्रादान-प्रदान में बहुत बड़ी सहायता पहुँचाई थी। उसके कुछ काल उपरांत साहित्य में भाचों का श्रादान-प्रदान भी प्रारंभ हुश्रा। इस प्रकार हम खुसरो की कविता में युगप्रवर्तन का पदुत कुछ पूर्णमास पाते हैं।