पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२४१

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२४० हिंदी साहित्य हिंदी की शैशवकाल की रचनाओं में दोहा छंद की सबसे अधिक प्रधानता थी। यद्यपि पृथ्वीराजरासो में सोरठा, छप्पय, वित्त, पद्धरी श्रादि प्राकृत काल के तथा साटक, शार्दूलविक्रीड़ित श्रादि संस्थत छंदों का प्रयोग भी पाया जाता है, परंतु जिस प्रकार संस्थत में अनुष्टुपों तथा प्राकृत में गाथाओं की ही प्रधानता रही है, उसी प्रकार पुरानी हिंदी का सर्वप्रिय छंद दोहा हो रहा है। पुरानी हिंदी ही क्यों, अपभ्रंशों में भी दोहों का अधिकता से व्यवहार हुआ है और उस काल की मुक्तक रचना के लिये दोहा छंद विशेष उपयोगी जान भी पड़ता है। । "दोहा" का नामकरण कुछ संस्कृत-पक्षपातियों ने दोधक किया है, परंतु संस्कृत के दोधक से इस छंद का कुछ भी संबंध नहीं है। पृथ्वी. राजरासो में भी भाषा का जितना सुष्ठ रूप दोहा छंद में देख पड़ता है, उतना अन्य छंदों में नहीं देख पड़ता, पर यह भी जान लेना चाहिए कि प्राचीन हिंदी के जितने अधिक चिह चंद के छप्पयों में, जिन्हें कवित्त का नाम दिया गया है, मिलते हैं, उतने दोहों में नहीं मिलते। कुछ छंदों में तो उसकी भाषा संस्कृत और प्राकृत की खिचड़ी सी बन गई है और व्याकरण तथा भाषाशास्त्र के नियमों का कहीं पता ही नहीं लगता। बीसलदेवरासो तथा पाल्हखंड श्रादि वीर गीतों के छंदों में एक प्रकार का बंधनरहित मुक्त प्रवाह मिलता है। न तो उनमें अंत्यानु- प्रास का ही प्रतिबंध रखा गया है और न संस्कृत के वर्णवृत्तों की सी कठोर नियम-बद्धता पाई है। अन्य दृष्टियों से भी ये छंद धीरभावों के अभिव्यंजन तथा भाषा की स्वाभाविकता और स्वच्छंदता के रक्षण में सहायक हुए है। अनुप्रासादि के द्वारा भापा को सजाने तथाश्रालंकारिक उक्तियों द्वारा भावों को चमत्कारपूर्ण यनाने का जितना प्रयत्न पृथ्वीराजरासो में देख पड़ता है, उतना उस काल की अन्य रचनाओं में कहीं नहीं देख पड़ता। संभवतः यह कार्य पीछे से किया गया है। जय देश का शासनाधिकार मुसलमानों के हाथ में जाकर स्थिर हो गया और जय रणथंभौर तथा वित्तौड़ आदि दो एक स्थानों को वीरगाथाओं का था छोड़कर शेप सभी देशी रजवाड़ों ने विदेशियों को आत्मसमर्पण कर दिया, तय वीर गाथाओं की द्वितीय उत्थान रचना में शिथिलता श्रा गई और धीरे धीरे उनका हास भी हो गया। स्वतंत्रता का सम्मान खोकर भारत नत- मस्तक हो चुका था। जनता पातंकित और विलासिनी होकर श्रात्म-