पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२४३

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२४२ "हिंदी साहित्य की वागडोर अपने हाथ में लेते ही परिस्थिति यदली। इतिहास की यह एक अद्भुत शिक्षा है कि कठोर अत्याचारी और अन्यायी नृपतियों के शासनकाल में ही जनता को अपने कल्याण का मार्ग दिसाई पड़ता है। हिंदू जोति, हिंदू धर्म तथा समस्त भारतीय राष्ट्र के लिये औरंगजेय का शासन सबसे अधिक कठोर तथा नृशंस था। जनता के लिये चरम निराशा का काल यही था। देश के बड़े बड़े मंदिरों और उच्च कोटि की कला के निदर्शनों को ढाकर उनके स्थान में मसजिद सड़ा करना, शासनकार्य में अधिक से अधिक पक्षपात दिसाना, जज़िया जैसे फर लगाकर तथा अनेक प्रकार के भय और प्रलोभन दिखाकर हिंदुओं को चलपूर्वक धर्मभ्रष्ट करना, हिंदुओं की मान-प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति, इज्जत. श्रावरू सघको द्विविधा में डाल देना प्रभृति अत्याचारों का फल यही हुया तो ऐसी स्थिति में हो सकता था और जो सदा हुया है। हिंदू . जाति बहुत दिनों तक सोती न रह सकी। यह जाग उठी। उसने अपनी भयानक स्थिति का अनुमान किया। यह सब कुछ सहन फर सकती थी, परंतु धर्म पर होनेवाले अत्याचार सहन करना उसको शक्ति के वाहर था। हिंदू आदि से ही धर्मप्राण थे, दो तीन सौ वर्षों की भक्त कवियों की वाणी के फलस्वरूप उनकी धनियता और भी दृढ़ हो गई थी । सच बात तो यह है कि उस निस्सहाय अवस्था में उन्हें एक धर्म का ही लहारा रह गया था। जब उनका एक मात्र यह नवलंबन भी उनसे छीना जाने लगा, तव सारी हिंदू जाति विकल हो उठी। उसने सच्ची स्थिति को समझ लिया। फलतः राजनीतिक क्षेत्र में एक हलचल सी मच गई और इस हलचल में एक जाग्रत राष्ट्र की सम्मिलित चेतना दिखाई दी। पंजाब में गुरु गोविंदसिंह, महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी और बुंदेल. खंड में वीर छत्रसाल इस जागर्ति का मूर्तिमान स्वरूप धारण कर भारत के रंगमंच पर रणचंडी का नृत्य दिखाने लगे। इस नवीन जागर्ति के मूल में धर्म-भावना ही थी। मुसलमानों के पाप का घड़ा भर चला था। यही जागर्ति हिंदी कविता में धीरगाथाओं के नवीन उत्थान के मूल में है। इसी काल में वीर फचियों का दूसरी बार प्रादुर्भाव हुना था। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वीर हम्मीरदेव से लेकर छत्रपति शिवाजी के समय तक वीरगाथाएँ लिखी ही नहीं गई। हाँ, यह बात अवश्य है कि उस काल में वीर-पूजा की सची भावना से प्रेरित होकर वीर काव्यों की रचना नहीं हुई। ऐसे तो तत्कालीन विलास- प्रिय नृपतियों की मनस्तृप्ति के लिये कितने ही स्वार्थसाधक खुशामदी कवियों ने अर्थ-लोलुपतावश कविवाणी के तिरस्कार-स्वरूप अनेक वीर