पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२४५

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हिंदी साहित्य दोनों की भाषा में जो कठोरता है, वह वीरकाव्याचित है। इस साधा- रण समता के अतिरिक्त कई दृष्टियों से दोनों कालों की रचनाओं में विभेद भी है। पहला विभेद भाषा संबंधी है। श्रादि युग को वीर- माथाएँ अपभ्रंश-भाषाओं और पुरानी हिंदी के सम्मिश्रण-काल की है। उस समय हिंदी का कोई स्थिर रूप निश्चित नहीं हो सका था, अतः उस काल की रचनाओं में भाषा की प्रौढ़ता कहीं देख नहीं पड़ती। दूसरी बात यह भी है कि प्रारंभिक काल की भीर रचनाओं का केंद्र राजपूताने के आस पास का प्रांत था, अतः उन रचनाओं में वहाँ की भाषा की गहरी छाप पड़ी है। इसके विपरीत द्वितीय उत्थान काल की वीरगाथाओं में साहित्यिक व्रजभापा अपने प्रौढ़ रूप में प्रयुक्त हुई है। एक प्रौढ़ भाषा के प्रतिष्ठित हो जाने के कारण, अथवा अन्य किसी कारण से उत्तरकालीन वीरगाथाओं को रूस या तो प्रबंधकास्य के रूप में देखते हैं या सुगठित मुक्तकों के रूप में देखते हैं। इस काल में हम आदि युग के से वीर गीतों का अभाव पाते हैं। इस समता और विभेद के साथ हम सामूहिक रूप से दोनों कालों की चीरमाथाओं का चित्र थोडा यहत देख सकते है, परंतु कचियों की धैयक्तिक विशेषताओं का पता नहीं लगा सकते। वीरगाथा काल के प्रायः सभी कवि राजाधित थे और अपने अपने वीर श्राश्रयदाताओं की स्तुति में काव्य-रचना करते थे। यद्यपि उनके पाश्रयदाताओं में अधि- कांश सच्चे वीर थे और उन्होंने जातीयता की भावना से प्रेरित होकर मुसलमानों से लोहा लिया था, परंतु राजपूत नृपति आपस में भी लड़ा करते थे और उनकी शक्ति गृह-कलह में भी क्षीण होती रहती थी। उनमे संघटित होकर मुसलमानों से युद्ध करने की इच्छा उतनी अधिक यलयती नहीं थी जितनी अलग अलग शौर्य प्रदर्शन की थी। अतः हमें उनके प्रयासों में समस्त राष्ट्र के प्रयास नहीं मिलते। इसी प्रकार उनकी प्रशंसा करनेवाले कवियों में जातीय या राष्ट्रीय भावना को प्रधानता नहीं देख पड़ती। इस दृष्टि से हम उत्तरकालीन वीर कविताकार "भूपण" को अन्य सय कवियों से विभिन्न श्रेणी में पाते हैं। उसकी कृतियों में जातीयता की भावना सर्वत्र व्याप्त मिलती है, उसको वाणी हिंदू जाति की वाणी है, वह हिंदुओं का प्रतिनिधि कवि है। औरंगजेब के धार्मिक कट्टरपन के कारण जय हिंदू जाति का अस्तित्व ही संकटापन्न हो गया, तब आत्मरक्षा और प्रतिकार की प्रेरणा से महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय हुना। इस शक्ति को संघटित करने वाले छत्रपति शिवाजी हुए जिनके मार्ग-प्रदर्शन का कार्य समर्थ गुरु