पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२५२

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पाँचवाँ अध्याय योग-धारा घोर काव्य के साथ ही साथ हमारे साहित्य के इतिहास में एक धारा और यहती रही जिसका पाट श्राध्यात्मिकता के जलं से भरा था। धार्मिक लहर विदेशियों के भीपण अाक्रमणों से भी भारतीय - योगियों की शांति भंग नहीं हुई। उनके यम- नियम, नासन-प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारण और समाधि विना किसी विप्न-बाधा के चलते रहे । चाहरी दुनिया को छोडकर ध्यानावस्थित होकर वे भीतरी दुनिया को देखते रहे। श्रात्मा की स्वतंत्रता के आगे देश की स्वतंत्रता का महत्त्व उनके मन में बैठ नहीं सकता था। प्रात्मा को परतंत्रता में डालने के बहुत से उपा. दान उस समय की स्थिति में विद्यमान थे। सासरिफ माया-मोह के घंधन से मुक्ति पाना स्वतः ही बहुत कठिन कार्य है, उस पर यदि स्वयं धर्म में उन उपायों को ग्रहण करना विधय घताया जाय जो सामान्यतः माया-मोह के दृढ़ बंधन माने जाते हैं तो मुक्ति का प्रश्न उठ ही नहीं सकता। हिंदी के उस श्रारंभिक युग में भारतीय धार्मिक स्थिति वस्तुतः ऐसी ही थी। बुद्ध के कट्टर विरक्ति-विधायक नियमों के प्रत्या- या वर्तन में बौद्धों ने अश्लील यातों को धर्म में ग्रहण कर लिया। जिन बातों से युद्ध भगवान् अपने गिने चुने विरक्त अनुयायियों को बचाए रखना चाहते थे, उन्हीं को उनके अनुयायी धर्म समझकर करने लगे थे। मंत्र-यान के मार्ग से बौद्ध धर्म ने वह विरूप प्राकृति धारण की जिसमें श्रकरणीय भी कर- णीय और निपिद्ध भी विधेय ठहराया गया। यम-नियमादि का उल्लंघन किया जाने लगा। हिंसा, असत्य-भाषण, मद्यपान, स्त्रियों से दुराचार अध्यात्म-सिद्धि के लिये आवश्यक उपादान समझे जाने लगे थे (गुह्य समाज तंत्र, पृष्ठ १२०, गायकवाड़ ओरियंटल सिरीज)। और तो और, साधन-मार्ग में माता, सास, वहिन, पुत्री श्रादि भी वर्जनीय नहीं समझी जाती थीं। दुराचारी राजा इस धर्म के प्रसार में सहायक हुए। मनुष्य की निम्न प्रकृति को उभाड़नेवाला यह धर्म दावाग्नि की तरह फैला। पाप को पुण्य का रूप देनेवाले इन 'सिद्धों को जनसाधारण वनयान