पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२६२

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छठा अध्याय भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा' मध्यकालीन धार्मिक उत्थान के संबंध में लिखते हुए हम उस समय की राजनीतिक, सामाजिक श्रादि स्थितियों का पहले उल्लेख कर जा चुके है, और यह भी बतला चुके हैं कि शंकर स्वामी के श्रद्वैतवाद को इने गिने चिंतनशील महा- त्माओं के ही उपयुक्त मानकर स्वामी रामानुज ने लोकोपयोगी भक्ति फा आविर्भाव किया था। साथ ही हम यह भी दिखला चुके हैं कि शंकराचार्य के श्रद्वैत मत और रामानुज के विशिष्टाद्वैत मत में कोई तात्विक अंतर नहीं है। रामानुज के उपरांत भक्ति का एक व्यापक आंदोलन उठ सड़ा हुश्रा जिसके मुख्य उन्नायकों में मध्वाचार्य, निंबार्का- चार्य, चैतन्य, रामानंद, वल्लभाचार्य और विट्ठलनाथ जैसे महात्मा हुए। इनके स्निग्ध सरस हृदय का श्रवलंबन पाकर भक्ति की एक प्रखर और पवित्र धारा बह चली। भक्ति की इस धारा में अनेक उपास्य देवों और उपासनाभेदों के रूप में अनेक स्रोतों का प्रादुर्भाव हुआ, परंतु मूल धारा में कुछ भी अंतर न पडा, वह एकरस बहती रही। विष्णु, गोपाल, कृष्ण, हरि, राम, बालकृष्ण श्रादि विभिन्न उपास्य देवों के सम्मिलित प्रभाव से भक्ति अधिकाधिक शक्तिसंपन्न होती गई, साथ ही जनता का विशेष मनोरंजन और दुःख निवारण भी होता गया। इन अनेक भक्ति- संप्रदायों का हमारे साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा, और चीरगाथा काल की एकांगिता दूर होकर हिंदी में एक प्रकार की व्यापकता और श्राध्या- त्मिकता का समावेश हुआ। मध्य युग का हिंदी साहित्य हिंदी के इतिहास में तो उत्कृष्टता की दृष्टि से अतुलनीय है ही, उसकी तुलना संसार के अन्य समृद्ध साहित्यों से भी भली भांति की जा सकती है। हिंदी के इस उत्कर्षवर्द्धन में तत्कालीन भक्ति-अभ्युत्थान ने विशेप सहायता पहुँचाई थी। तत्कालीन भक्ति-आंदोलन के साथ हिंदी साहित्य का तारतम्य हूँद लेना विशेष कठिन नहीं है। रामानुज और मध्वाचार्य का प्रचार- क्षेत्र अधिकतर दक्षिण में ही था, और उन्होंने संस्कृत भाषा में ही अपने