पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२६६

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भक्तिकाल की शानाश्रयी शाखा २६५ की कृष्णभक्ति का भी ऊपर उल्लेख कर चुके हैं। वल्लभाचार्य के पुत्र और उत्तराधिकारी विट्ठलनाथ हुए जिन्होंने चार अपने और चार अपने पिता के शिष्यों को लेकर उन पर कृष्णभक्ति की छाप लगा दी। यही हिंदी साहित्य के इतिहास में अष्टछापवाले कवि कहलाते हैं जिनमें से प्रधान कवि महात्मा सूरदास कहे जाते हैं। अष्टछाप के कवियों ने यद्यपि कृष्ण की पूरी जीवनचर्या अंकित की है, पर प्रधानता उनके लोकरंजक बालस्वरूप की ही पाई जाती है। इसका कारण यह है कि स्वामी वल्लभाचार्य स्वयं कृष्ण के बालरूप के उपासक थे। भक्त कवियों ने कृष्ण का वह मधुर मनोरंजक स्वरूप हृदयंगम किया था जो याल- लीलाएँ करनेवाला और गोपिकाओं को रिझाने-खिझानेवाला था। कृष्ण के उस स्वरूप की इन कवियों ने सर्वथा उपेक्षा की जिसका मनो- रम चित्र महाभारत में उपस्थित किया गया है। कृष्ण के लोकरक्षक स्वरूप की जो अभिव्यक्ति पूतना-संहार, बकासुर-घध, कंस-नाश श्रादि में देख पड़ती है, उसकी ओर कृष्णभक्त कवियों का बहुत कम ध्यान गया, फलतः उसके वर्णन भी कम है और वे हैं भी नीरस, मानों कवियों की वृत्ति उनमें रमी ही न हो। इन कृष्णभक्त कवियों की कृपा से हिंदू जनता का अभूतपूर्व मनोरंजन हुआ, पर इनसे उसको तत्कालीन निराशा का पूरा पूरा परिहार न हो सका। इसी समय मानों हिंदू जनता की निराशा का उन्मूलन करने तथा हिंदी कविता के उत्कर्ष को चरम सीमा तक पहुँचाने के लिये रामभक्त व महात्मा रामानंद की शिष्यपरंपरा में महाकवि - गोस्वामी तुलसीदास का आविर्भाव हुआ। गो- स्वामीजी राम-भक्त थे और उन्होंने अपने उपास्य देव श्रीराम को निस्सीम शील, सौदर्य और शक्ति से संपन्न अंकित किया है। रामचरितमानस में श्रीरामचंद्र के इस स्वरूप के हमको पूरे पूरे दर्शन मिलते हैं, यद्यपि गोस्वामीजी की अन्य रचनाओं में भी राम की वही मूर्ति देख पड़ती है। लोकव्यवहार में राम को खड़ा करके और उनमें शक्ति, शील तथा सौंदर्य को चरम सीमा तक पहुँचाकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति को अत्यंत उदार तथा कल्याणकर और श्राकर्षक बना दिया। यदि चे चाहते तो कृष्णभक्त कवियों की भांति राम की बालक्रीड़ाओं को ही प्रधानता देकर उन्हें केवल नेत्ररंजक बना सकते थे; पर गोस्वामीजी के उदार हृदय में जो लोक-भावना समाई हुई थी, उसको अवहेलनाचे कहाँ तक कर सकते थे? राम के उत्पन्न होते ही "भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी" श्रादि कहकर गोस्वामीजी ने मानों