पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२६८

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भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा २६७ दिखाई दिए। श्रतएव उनकी और जनता को सहसा प्रवृत्त कर सकना असंभव था। पंढरपुर के भक्तशिरोमणि नामदेव की सगुण भक्ति जनता को प्राकृष्ट न कर सकी। लोगों ने उसका वैसा अनुसरण न किया जैसा आगे चलकर कवीर श्रादि संत कवियों का किया और अंत में उन्हें भी ज्ञानाश्रित निर्गुणभक्ति की ओर झुकना पड़ा। उस समय परिस्थिति केवल निराकार और निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के ही अनुकूल थी, यद्यपि निर्गुण की शक्ति का भली भांति अनुभव नहीं किया जा सकता था, उसका आभास मात्र मिल सकता था। पर प्रवल जलधारा में बहते हुए मनुष्य के लिये यह कुलस्थ मनुष्य या चट्टान किस काम की जो उसकी रक्षा के लिये तत्परता न दिखलावे? उसकी ओर बहकर आता हुआ तिनका भी जीवन की पाशा पुनरुद्दीप्त कर देता है और उसी का सहारा पाने के लिये वह अनायास हाथ चढ़ा देता है। संत कवियों ने अपनी निर्गुण भक्ति के द्वारा भारतीय जनता के हृदय में यही श्राशा उत्पन्न को और उसे कुछ अधिक समय तक विपत्ति की इस अथाह जलराशि के ऊपर बने रहने की उत्तेजना दी, यद्यपि सहायता की श्राशा से आगे बढ़े हुए हाथ को वास्तविक सहारा सगुण भक्ति से ही मिला और केवल रामभक्ति ही उसे किनारे पर लगाकर सर्वथा निरापद कर सकी। पर इससे जनता पर होनेवाले कवीर, दाद, रैदास आदि संतों के उपकार का महत्व कम नहीं हो जाता। कवीर यदि जनता को भक्ति की ओर न प्रवृत्त करते तो क्या यह संभव था कि लोग इस प्रकार आँखें मूंद करके सूर और तुलसी को ग्रहण कर लेते ? सारांश यह कि इन संत कवियों का श्राविर्भाव ऐसे समय में हश्रा जय मुसलमानों के अत्याचारों से पीडित भारतीय जनता को अपने जीवित रहने की आशा तक नहीं रह गई थी और न उसमें अपने आपको जीवित रखने की इच्छा ही शेष थी। उसे मृत्यु या धर्मपरिवर्तन के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं देख पड़ता था। यद्यपि धर्मशील तत्त्वज्ञों ने सगुण उपासना से आगे बढ़ते पढ़ते निर्गुण उपासना तक पहुँचने का सुगम मार्ग बतलाया है और वास्तव में यह तत्त्व युक्तिसंगत भी जान पड़ता है, पर उस समय जनता को सगुण उपासना की निस्सारता का परिचय मिल चुका था श्रीर उस पर से उसका विश्वास भी. उठ चुका था। अतएव कवीर को अपनी व्यवस्था उलटनी पड़ी। मुसलमान भी निगुणोपासक थे। अतएव उनसे मिलते-जुलते पथ पर लगाकर कीर आदि ने हिंदू जनता को संताप और शांति प्रदान करने का उद्योग किया। यद्यपि इस उद्योग में उन्हें पूरी पूरी सफलता नहीं हुई, तथापि यह स्पष्ट है कि