पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२७०

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भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा २६६ कारिणी हुई। रामानंद के शिष्यों में से दो स्त्रियाँ थीं, एक पद्मावती और दूसरी सुरसरी। आगे चलकर सहजोवाई और दयावाई भी भक्त संतो में से हुई। वर्णाश्रम की मर्यादा के पक्षपाती और घर की चहार- दीवारी में ही स्त्रियों को कैद रखनेवाले उच्च वर्गीय समाज के प्रतिनिधि 'तुलसीदासजी भी जो मीराबाई को "जिनके प्रिय न राम चैदेही। तजिए तिन्हें कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही" का उपदेश दे सके, उसे निर्गुण भक्ति के ही अलक्ष्य और अनिवार्य प्रभाव का प्रसाद समझना चाहिए । शानी संतों ने स्त्री को जो निंदा की है वह दूसरी ही दृष्टि से। वहाँ उनका अभिप्राय स्त्री पुरुष के कामवासनापूर्ण संसर्ग से है। कवीर से बढ़कर कदाचित् ही और किसी ने स्त्री की निंदा की हो, परंतु फिर भी उनकी पत्नी लोई का श्राजन्म उनके साथ रहना प्रसिद्ध है। कवीर इस निर्गुण भक्तिप्रवाह के प्रवर्तक थे, परंतु भक्त नामदेव इनसे भी पहले हो गए थे। नामदेवजी जाति के दरजी थे और दक्षिण ... के सतारा जिले में नरसी धमनी नामक स्थान में धामिक सिद्धात उत्पन्न हए थे। पंढरपुर में विठोवाजी का मंदिर है।.ये उनके बड़े भक्त थे। पहले ये सगुणोपासक थे, परंतु आगे चल- कर इनका मुकाव निर्गुण भक्ति की ओर हो गया, जैसा कि इनके कुछ पदों से प्रकट होता है। कवीर के पीछे तो संतों की मानो बाढ़ सी श्रा गई और अनेक मत चल पड़े। पर सव पर कवीर का प्रभाव परिलतित होता है। नानक, दादू, शिवनारायण, जगजीवनदास आदि जितने प्रमुख संत हुए, सबने कबीर का अनुकरण किया और अपना अपना अलग मत चलाया। इनके विषय की मुख्य यातें ऊपर आ गई हैं, फिर भी कुछ बातों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है। सयने नाम, शब्द, सद्गुरु श्रादि की महिमा गाई है और मुर्ति पूजा, अवतारवाद तथा कर्मकांड का विरोध किया है, तथा जाति-पाति का भेद-भाव मिटाने का प्रयत्न किया है। परंतु हिंदू जीवन में व्याप्त सगुण भक्ति और कर्म- कांड के प्रभाव से इनके प्रवर्तित मतों के अनुयायियों द्वारा वे स्वयं परमात्मा के अवतार माने जाने लगे हैं, और उनके मतों में भी कर्मकांड का श्राडंबर भर गया है। कई मतों में केवल द्विज लिए जाते हैं। केवल नानकदेवजी का चलाया सिख संप्रदाय ही ऐसा है जिसमें जाति- पांति का भेद नहीं आने पाया, परंतु उसमें भी कर्मकांड की प्रधानता हो गई है और ग्रंथ साहब का प्रायः वैसा ही पूजन किया जाता है, जैसा मूर्तिपूजक मूर्ति का करते हैं। कबीरपंथी मठों में भी फवीरदास