पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२७६

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भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा २७५ कीर ने अपनी उक्तियों पर याहर वाहर से अलंकारों का मुलम्मां नहीं लगाया है। जो अलंकार उनमें मिलते भी हैं वे उन्होंने खोजकर नहीं बैठाए हैं। मानसिक कलाबाजी और कारीगरी के अर्थ में कला का उनमें सर्वथा अभाव है, परंतु सञ्ची कला के लिये तो तथ्य की श्राव- श्यकता है । भावुकता के दृष्टिकोण से कला आडंबरों के बंधन से निमुक्त तथ्य है। एक विद्वान् कृत इस परिभाषा को यदि काव्यक्षेत्र में प्रयुक्त करें तो बहुत कम कवि सच्चे कलाकारों की कोटि में पा सकेंगे। परंतु फवीर का श्रासन उस ऊँचे स्थान पर अविचल दिखाई देता है। यदि सत्य के खोजी कवीर के काव्य में तथ्य को स्वतंत्रता न मिली हो, तो और कहीं नहीं मिल सकती। फीर के महत्व का अनुमान इसी से हो सकता है। कबीरदास छंदशास्त्र से अनभिज्ञ थे, यहाँ तक कि वे दोहों को भी पिंगल की खराद पर न चढ़ा सके। डफली वजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकल गया, वही ठीक था। मात्राओं के घट बढ़ जाने की चिंता उनके लिये व्यर्थ थी। परंतु साथ ही कबीर में प्रतिभा थी, मौलिकता थी। उन्हें कुछ संदेश देना था और उसके लिये शब्द की माना या वर्णों की संख्या गिनने की आवश्यकता न थी। उन्हें तो इस ढंग से अपनी बातें कहने की श्रावश्यकता थी जिसमें वे सुननेवालों के हृदय में पैठ जायें और पैठकर जम जायें। इसके अतिरिक्त वह काल भापा के प्राथमिक विकास का था, तब तक उसमें विशेष मार्जन नहीं हो पाया था। कवीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है; क्योंकि वह खिचड़ी है। कबीर की रचना में कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं परंतु भापा का निर्णय प्रायः शब्दों से नहीं होता। भाषा के आधार क्रियापद, संयोजक शब्द तथा कारक-चिह्न हैं जो चास्यविन्यास का विशेषताओं के कारण होते हैं। कवीर में केवल शब्द ही नहीं, किया- पद, कारक-चिह्नादि भी कई भाषाओं के मिलते हैं। क्रियापदों के रूप अधिकतर प्रजमापा और खड़ी बोली के हैं। कारक-चिह्नों में से, के, सन, सा श्रादि अवधी के हैं, को ब्रज का है और थे राजस्थानी फा। यद्यपि उन्होंने स्वयं कहा है-"मेरी बोली पूरवी," तथापि खड़ी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं का पुट उनी उक्तियों पर चढ़ा हुश्रा है। "पूरवी" से उनका क्या तात्पर्य है, यह नहीं कह सकते। काशीनिवास उनको पूरवी से अवधी का अर्थ लेने के पक्ष में है, परंतु उनकी रचना में बिहारी का भी पर्याप्त मेल है, यहाँ तक