पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२८०

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भक्तिकाल की शानाश्रयी शाखा २७६ यद्यपि साहित्यिक समीक्षा में निर्गुण संत कवियों को उच्चतम स्थान नहीं दिया जाता, पर इससे हम उनके किए हुए उपकार को नहीं भूल सकते। मुसलमान और हिंदू संस्कृतियों के उस संघर्ष-काल में जिस शांतिमयी वाणी की आवश्यकता थी, संतों ने उसी की अभिव्यं. जना की। यह ठीक है कि हिंदू समाज के उच्च वर्ण इस निर्गुण संप्रदाय की और अधिक प्राकृष्ट नहीं हुए, प्रत्युत उसके विरोध में ही बने रहे, पर समाज की निन्न श्रेणी का जो भारी कल्याण इन कवियों ने किया, वह इस देश के इतिहास में स्मरणीय रहेगा। अब भी हिंदी के प्रधान कवियों में कवीर आदि का उच्च स्थान है और प्रचार की दृष्टि से तो महात्मा तुलसीदास के बाद इन्हीं का नाम लिया जा सकता है। एक बात और ध्यान देने की है। अब तक समस्त धार्मिक आंदोलन केवल संस्कृत भाषा का ही श्राश्रय लेकर होता था, यहाँ तक कि वल्लभाचार्य और रामानंद ने भी जो कुछ लिखा, संस्कृत में ही लिखा था। इनके अनंतर यह प्रवृत्ति बदली और देश-भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। इसी का यह परिणाम हुअा कि साधारण जनता इस श्रीर पारुष्ट हुई और उनमें जागर्ति उत्पन्न हुई। संत महात्मानों के उद्योग, का यह फल हुश्रा कि दलित और अस्पृश्य जातियों में भी जीवन के श्रादर्श को ऊँचा करने और उच्च जातियों के समकक्ष होने की कामना हुई। जिस प्रकार अाजकल एक अस्पृश्य जाति का पुरुष मुसलमान या क्रिस्तान होने पर समाज में सम्मान का भाजन होता है उसी प्रकार मध्य युग में नीच से नीच जाति का व्यक्ति भी संत होकर और भगव- द्भक्ति में लीन होकर समाज में आदर-सत्कार का अधिकारी हो जाता था। पर यह संस्कार सामूहिक रूप में न हो सका। इसका मुख्य कारण अंत्यजों की व्यावसायिक परिस्थिति ही जान पड़ती है। जी हो, इसमें संदेह नहीं कि इस युग में इन संत महात्माश्नों के कारण हिंदी साहित्य और भारतीय समाज का महान् उपकार हुआ।