पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२८१

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सातवाँ अध्याय प्रेममार्गी भक्ति शाखा जव एक जाति किसी देश से श्राकर अन्य देश को किसी दूसरी जाति से मिलती है तब दोनों के भावों, विचारों तथा रीति-नीति का आविर्भाव-काल विनिमय ऐसी विलक्षण रीति से होने लगता है कि उन जातियों की सभ्यता तथा संस्कृति में बड़े बड़े परिवर्तन हो जाते हैं। कभी कभी तो विजयिनी जाति शकिमती होती हुई भी अपनी अल्प संख्या अथवा हीन संस्कृति के कारण विजित जाति की यह संख्या में विलीन हो जाती है और अपना संपूर्ण अस्तित्व खोकर विजित जाति की सभ्यता श्रादि ग्रहण कर लेती है। भारत पर थाक्रमण करनेवाली हूण, कुशन और यूची श्रादि जातियों की ऐसी ही अवस्था हुई थी। कभी कभी विजेतायों के उत्साह अथवा उच्चाकांक्षाओं में विजितों के अस्तित्व को दवा देने की भी क्षमता देखी जाती है। प्राचीन यूनान पर डोरियन तथा श्राइअोनियन अाक्रमणों का यही प्रभाव पड़ा था। इसी प्रकार कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है कि यद्यपि दोनों जातियों के संघर्ष से दोनों की रीति-नीति में अंतर पड़ते हैं, पर दोनों ही अपनी सभ्यता तथा अन्य विशेषताओं को अनुरण रखती है। और अलग अलग अपना विकास करती हैं। ऐसा अधिकतर उस समय होता है जब दोनों ही जातियाँ अपनी सभ्यता तथा संस्कृति को उन्नत कर चुकी हों और परिस्थिति के अनुसार उनमें साधारण परिवर्तन करके अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने की क्षमता रखती हो। भारतवर्ष पर मुसलमानों की विजय के अनंतर जव हिंदू और मुसलमान सभ्यताओं का संयोग हुआ तय हिंदू अपनी प्राचीन तथा उच्च सभ्यता के कारण दृढ़ बने रहे और मुसलमानों के नवीन धार्मिक उत्साह तथा विजयगर्व ने उन्हें हिंदुओं में मिल जाने से रोक रखा। , हिंदू और मुसलमान यद्यपि अलग अलग बने रहे, परंतु उनमें भावों और विचारों की एकता अवश्य स्थापित हुई। दोनों ही जातियों ने अपने धार्मिक श्रादि विभेदों को वहीं तक बना रहने दिया जहाँ तक उनके स्वतंत्र अस्तित्व के लिये उनको आवश्यकता थी। इसके आगे दोनों धीरे धीरे मिलने लगे। वास्तव में मनुष्य सामाजिक जीव है।