पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२९०

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प्रेममार्गी भक्ति शाखा २८६ भी ईश्वर या ब्रह्म हो समझने लगे। श्रात्मा और परमात्मा का अभेद प्रतिष्ठित हुआ। कट्टर मुसलमानों के मत में यह कुफ ठहरा, पर सूफियों का यही मत था। . "अनलहक" "अनलहक" कहता हुआ सूफी मंसूर सूली पर चढ़ा था। प्रारंभ में जब सूफियों के मत का प्रचार हुआ था तब उन्हें अनेक प्रकार के अत्याचार सहने पड़े थे। जीव और जगत् को भी ब्रह्म मान लेने के कारण वे प्रकृति के अणु अणु में उसी चेतन सत्ता का साक्षात्कार करते और भाव-मग्न होते.थे। मुसलमानों के खुदा तो विहिश्त के निवासी, मनुष्यों के निर्माता और नाशकर्ता होते हुए भी निराकार निर्लेप बने रहे, पर सूफियों के नवीन संप्रदाय में प्रेम की इतनी प्रधानता हुई कि सृष्टि के रोम रोम में उन्हें श्रानंद की झलक देख पड़ने लगी। जव सर्वत्र ब्रह्म है, तव चुत में भी ब्रह्म का होना अनिवार्य है, अतः सूफियों को हुस्ने-बुता के पर्द में "वही" देख पड़ने लगा। यद्यपि खुदावादं की निराकार भावना सूफियों में बनी रही पर उनमें श्रत्य- धिक सरसता और उदारता श्रादि वृत्तियाँ फैली और कट्टरपन का तो एकदम अंत हो गया। नवोत्थित सूफी संप्रदाय में भारतीय अद्वैतवाद की गहरी छाप देख पड़ी। यह सूफी मत भारत में पहले पहल सिंध प्रांत में फैला, फिर देश के अन्य भागों में भी इसका प्रचार हुआ। थोड़े समय के उपरांत जब इस देश में वैष्णव धर्म की लहर चली, तय सुफियों पर उसका पड़ा प्रभाव पड़ा। प्रेमपूर्ण वैष्णव धर्म शाकों और शैवों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था और उसने अहिंसा श्रादि पर विशेष जोर डाला था। "हरि को भजे सो हरि को होई" के आधार पर मनुप्य मनुप्य का साम्य स्थापित हुआ था और यही साम्य अधिक विस्तृत होकर पशुश्नों पतियों पर दया दिखाने, उनका वध न करने आदि रूपों में भी फैला था। सूफियों ने वैष्णव धर्म की यह शिक्षा ग्रहण की थी और घे भी अहिंसावादी बन गए थे। उपनिपदों के अन्य अनेकवादों को भी सूफियों ने ग्रहण किया था। प्रतिबिंबवाद के अनुसार नाम-रूपात्मक जगत् ब्रह्म का प्रतिविंय है। ब्रह्म विंध है और जगत् उसका प्रतिबिंय। जायसी ने पदमावत में कई स्थानों पर प्रतिबिंववाद से अपना मत-साम्य दिखलाया है। सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में यद्यपि प्रधानता मुसलमानी मतों को ही दी गई है, परंतु भारतीय शैली का भी धीच घीच में सम्मिश्रण हुआ है। भारतीय पंचभूतों के स्थान पर सूफियों को चार ही भूत मान्य थे। घाफाश की