पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२९३

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प्रेममार्गी भक्ति शाखा २६३ कुल बेठिकाने की उत्पत्ति के अनेक शब्दों का अनेक रूपों में प्रयोग हुआ है। भाषा की प्रारंभिक अवस्था में ऐसा होना स्वाभाविक भी है। धीरे धीरे उस भापा का विकास होने लगा। हिंदी में वीरगाथा काल के उपरांत जय वैष्णव आंदोलन की लहर चली और कबीर आदि संतों का आविर्भाव हुआ, तब हिंदी कविता का क्षेत्र राजपूताने श्रादि से हट- कर पूर्व की भोर पाया। कवीर की भाषा में पंजाबीपन तो है, पर उसमें श्रवधी क्रियाओं के रूप तथा बिहारी प्रयोग भी कम नहीं हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि कबीर के द्वारा भाषा का भद्दापन दूर हुश्रा हो। हाँ, विकासक्रम के अनुसार वीरगाथाओं की भाषा से कबीर की भापा कुछ नियमित अवश्य है। भापा का जैसा सुंदर सुधार सूफी कवियों ने किया वैसा हिंदी में पहले कभी नहीं हुआ था। सूफियों की भाषा अवध की थी, जिसकी उत्पत्ति अर्धमागधी से मानी जाती है। जायसी आदि ने उसे परिमार्जित कर अत्यंत शुद्ध बना दिया और उसमें व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगों को न आने दिया। यद्यपि कहीं कहीं परवी फारसी के शब्द भी पाए हैं और कहीं कहीं अवधी तोड़ी मरोड़ी भी गई है परंतु अधिकांश कवियों ने यथासंभव शुद्ध अवधी का ही प्रयोग किया है। अवधी का यह माधुर्य लोकभापा का माधुर्य है, संस्कृत का नहीं। तुलसीदास के रामचरितमानस में जो भाषा है उसमें संस्कृत की प्रचुरता के कारण एक नवीन सौदर्य आ गया है जो ठेठ अवधी के सौंदर्य से भिन्न है। हम कह सकते हैं कि सूफी कवियों की अवधी घोलचाल की परिमार्जित भाषा थी, तुलसीदासजी की अवधी ने साहि- त्यिक रूप धारण किया, एक का दूसरे के अनंतर विकास सर्वथा स्वाभाविक था। सूफी संप्रदाय के कुछ विशिष्ट कवियों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है। ये विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्यभाग में शेरशाह के पिता हुसैनशाह के श्राश्रय में रहते थे। चिश्ती वंश के प्रसिद्ध शेस घुरहान न इनके गुरु थे। हिंदी के सूफी कवियों में ये ही - सबसे पहले हुए और इनकी रचित "मृगावती" का नामोल्लेख जायसी ने अपने पद्मावत में किया है। मृगावती पुस्तक में गणपतिदेव के पुत्र और मृगावती की प्रेमगाथा अंकित की गई है। गणपतिदेव चंद्रनगर के राजा है और मृगावती कंचनपुर की राजकन्या है। चंद्रनगर का राजकुमार कंचनपुर की राजकुमारी को देसकर मोहित हो गया पर राजकुमारी उड़ने की विद्या जानती थी, इससे यह राजकुमार को मिल न सकी। अनेक कष्ट उठाने पर अंत में मृगावती