पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३०५

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रामभक्ति शाखा ३०५ अंत में ये काशी में प्राकर रहे और संवत् १६३१ में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "रामचरितमानस" लिखने बैठे। उसे इन्होंने लगभग ढाई वर्षों रामचरितमानस और ...में समाप्त किया। रामचरितमानस का कुछ विनयपत्रिका बार अंश काशी में लिखा गया है, कुछ अन्यत्र भी। इस ग्रंथ की रचना से इनकी बड़ी ख्याति हुई। उस काल के प्रसिद्ध विद्वान् और संस्कृत मधुसूदन सरस्वती ने इनकी घड़ी प्रशंसा की थी। स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत के विद्वान् उस समय भापा-कविता को हेय समझते थे। ऐसी अवस्था में उनकी प्रशंसा का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। गोस्वामी तुलसीदास को उनके जीवन-काल में जो प्रसिद्धि मिली, वह निरंतर बढ़ती ही गई और अब तो वह सर्वव्यापिनी हो रही है। . रामचरितमानस लिख चुकने के पश्चात् गोस्वामीजी का श्रात्म- साधना की ओर संलग्न होना स्वाभाविक ही था । रामचरितमानस के अंत में उन्होंने "पायौ परम विश्राम" की यात कही है। इसी विश्राम की निरंतर साधना उनके जीवन का लक्ष्य हुश्रा। जिन राम की कृपा से उन्हें यह लाम हुया था उन्हीं के गुणों का गान करते हुए उनमें अपनी सत्ता खो देना ही गोस्वामीजी की रामभक्ति के अनुकूल था और इसे उन्होंने अपने दीर्व जीवन में सिद्ध भी किया। उनकी विनय- पत्रिका इसी लक्ष्य की पूर्ति है। भक्त का दैन्य और श्रात्मग्लानि दिखा- फर, प्रभु की क्षमता और क्षमाशीलता का चित्र अपने हृदय-पटल पर अंकित कर तथा भक्त और प्रभु के अविच्छिन्न सबंध पर जोर देकर गोस्वामीजी ने विनय पत्रिका को भक्तों का प्रिय ग्रंथ बना दिया। यद्यपि उनके उपास्य देव राम थे, तथापि पत्रिका में गणेश और शिव आदि की वंदना कर एक ओर तो गोस्वामीजी ने लौकिक पद्धति का अनुसरण किया है और दूसरी ओर अपने उदार हृदय का परिचय दिया है। उत्तर भारत में कट्टरपन की .खला को शिथिल कर धामिक उदारता का प्रचार करनेवालों में गोस्वामीजी अग्रणी हैं। ऐसी जनश्रुति है कि विनय-पत्रिका की रचना गोस्वामीजी ने काशी के गोपाल मंदिर में की थी। . गोस्वामीजी की मृत्यु काशी, में संवत् १६८० में, हुई थी। काशी में उस समय महामारी का प्रकोप था और तुलसीदासजी भी उससे मत्याक्रांत हुए थे। उन्हें विञ्चिका हो गई थी, पर . कहा जाता है कि महावीरजी की चंदना करने से वह दूर हो गई । परंतु वे इसके उपरांत अधिक दिन जीवित नहीं रहे। ऐसा