पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३०६

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३०६ हिंदी साहित्य जान पड़ता है कि इस रोग ने उनके घृद्ध शरीर को जर्जर कर दिया था। मृत्यु-तिथि के संबंध में अब तक कुछ मत-विभेद था। अनुप्रास- पूरित इस दोहे के अनुसार उनकी निर्वाण-तिथि श्रावण शुक्लपक्ष की सप्तमी मानी जाती रही है- संवत सारह सौ असी, असी गंग के तीर । सावन सुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर ॥ परंतु घेणीमाधवदास के गोसाई चरित में उनकी मृत्यु-तिथि संवत् १६८० की श्रावण श्यामा तीज, शनिवार लिखी हुई है। श्रनु- संधान करने पर यह तिथि ठीक भी ठहरी; क्योंकि एक तो तीज के दिन शनिवार का होना ज्योतिप की गणना से ठीक उतरा और दूसरे गोस्वामीजी के घनिष्ठ मित्र टोडर के वंश में तुलसीदास जी की मृत्यु- तिथि के दिन एक सीधा देने की परिपाटी अय तक चली आती है और वह सीधा श्रावण के कृष्णपक्ष में तृतीया के दिन दिया जाता है "सावन सुक्ला सप्तमी" को नहीं। विगत कुछ वर्षों से उत्तरी भारत में प्रायः सर्वत्र तुलसी-जयंती मनाई जाने लगी है। जयंती की तिथि श्रव तक श्रावण शुक्ला सप्तमी ही मानी जा रही है। जिन्हें यह ज्ञात हो गया है कि यह गोस्वामीजी की इहलीला-संवरण की तिथि नहीं है चे इसे उनकी जन्मतिथि के रूप में जयंती मनाते हैं। महापुरुषों की जन्मतिथि पर उत्सव मनाना भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि से विधेय नहीं है। जन्म-तिथि तो राम, कृष्ण श्रादि अवतारी पुरुषों की ही मनाई जाती है। अन्य महात्मानों की तो शरीरस्त्याग की तिथि ही मनाने की प्रथा है। राम, कृष्ण आदि का अवतार दिव्य था अतः उनकी अवतार-तिथि स्मरणीय है किंतु तुलसीदासजी की तो निर्वाण-तिथि ही मान्य है। उनके जन्म-दिवस का उत्सव तो लौकिक ही कहा जायगा; क्योंकि जन्म के समय वे प्राकृत पुरुप ही थे। पीछे अपनी साधना से उन्हें मोक्ष प्रास हुश्रा अतः मोक्ष- तिथि का उत्सव मनाना ही यहाँ की आध्यात्मिक परंपरा के अनुकूल होगा; क्योंकि भारतीय अध्यात्मशास्त्र प्रकृति को माया या मिथ्या मानता श्रीर ब्रह्म को ही सत्य ठहराता है। महात्मा तुलसीदासजी ने श्रावण कृष्ण तृतीया को अपनी सांसारिक लीला संवरण की नार परम तत्त्व से एकाकार हो गए। अतः उसी तिथि को उनकी जयंती मनाने की परिपाटो प्रचलित होनी चाहिए। महाकवि तुलसीदास का जो व्यापक प्रभाव भारतीय जनता पर है उसका कारण उनकी उदारता, उनकी विलक्षण प्रतिभा तथा उनके