पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३०७

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भार- राममति शाखा ३०७ उद्गारों की सत्यता श्रादि तो है ही, साथ ही उसका सबसे बड़ा कारण है उनका विस्तृत अध्ययन और उनकी सारग्राहिणी प्रवृत्ति । . "नानापुराण निगमागमसम्मत" रामचरितमानस लिखने की बात अन्यथा नहीं है, सत्य है। भार- तीय जन-समाज पर रतीय संस्कृति के श्राधारभूत तत्त्वों को गोस्वामीजी को प्रभाव,उसके कारण-विविध शास्त्रों से ग्रहण किया था और समय (१) अध्ययन के अनुरूप उन्हें अभिव्यंजित करके अपनी अपूर्व दूरदर्शिता का परिचय दिया था। यों तो उनके अध्ययन का विस्तार अत्यधिक था, परंतु उन्होंने रामचरितमानस में प्रधानतः वाल्मीकि रामायण का अाधार लिया है। साथ ही उन पर वैष्णव महात्मा रामा- नंद की छाप स्पष्ट देख पड़ती है। उनके रामचरितमानस में मध्य- फालीन धर्मग्रंथों विशेषतः अध्यात्मरामायण, योगवाशिष्ठ तथा अद्भुत रामायण का प्रभाव कम नहीं है। भुशुंडि रामायण और हनुमन्नाटक नामक ग्रंथों का ऋण भी गोस्वामीजी पर है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण की कथा लेकर उसमें मध्यकालीन धर्मग्रंथों के तत्त्वों का समावेश कर साथ ही अपनी उदार युद्धि और प्रतिभा से अद्भुत चमत्कार उत्पन्न कर उन्होंने जिस अनमोल साहित्य का सृजन किया, वह उनकी सारग्राहिणी प्रवृत्ति के साथ ही उनकी प्रगाढ़ मौलि- कता का भी परिचायक है। गोस्वामीजी की समस्त रचनाओं में उनका रामचरितमानस ही सर्वश्रेष्ठ रचना है और उसका प्रचार उत्तर भारत में घर घर है। गोस्वामीजी का स्थायित्व और गौरव इसी पर (२) उदारता और बार सबसे अधिक अवलंबित है। रामचरितमानस सारग्राहिता करोड़ों भारतीयों का एकमात्र धर्म-ग्रंथ है। जिस प्रकार संस्कृत साहित्य में वेद, उपनिषद् तथा गीता आदि पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं, उसी प्रकार आज संस्कृत का लेशमान शान न रखनेवाली जनता भी करोड़ों की संख्या में रामचरितमानस को पढ़ती और वेद श्रादि की ही भांति उसका सम्मान करती है। इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि गोस्वामीजी के अन्य ग्रंथ निम्नकोटि के हैं। गोस्वामीजी की प्रतिभा सय में समान रूप से लक्षित होती है, किंतु रामचरितमानस की प्रधानता अनिवार्य है। गोस्वामीजी ने हिंदू धर्म का सच्चा स्वरूप राम के चरित्र में अंतर्निहित कर दिया है। धर्म और समाज को कैसी व्यवस्था होनी चाहिए; राजा प्रजा, ऊँच नीच, द्विज शूद्र श्रादि सामाजिक सूत्रों के साथ माता पिता, गुरु भाई आदि